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प्रश्न

इसका क्या अर्थ है कि परमेश्वर धर्मी है?

उत्तर


जब हम कहते हैं कि परमेश्वर धर्मी है, तो हमारा अर्थ यह होता है कि वह अपने प्राणियों के साथ व्यवहार करने में पूरी तरह से धार्मिकता से भरा हुआ है। परमेश्‍वर कोई पक्षपात नहीं दिखाता (प्रेरितों के काम 10:34), वह दूसरों के प्रति होने वाले दुर्व्यवहार के विरुद्ध आज्ञा देता है (जकर्याह 7:10), और वह सताने वालों के विरुद्ध सिद्धता के साथ प्रतिशोध को संचालित करता है (2 थिस्सलुनीकियों 1:6; रोमियों 12:19)। परमेश्वर केवल प्रतिफलों को देने में धर्मी है: “क्योंकि परमेश्‍वर अन्यायी नहीं कि तुम्हारे काम, और उस प्रेम को भूल जाए, जो तुम ने उसके नाम के लिये इस रीति से दिखाया, कि पवित्र लोगों की सेवा की और कर भी रहे हो” (इब्रानियों 6:10)। ठीक उसी रूप में वह दण्ड को देने में भी धर्मी है: “क्योंकि जो बुरा करता है वह अपनी बुराई का फल पाएगा, वहाँ किसी का पक्षपात नहीं” (कुलुस्सियों 3:25)। न्याय और धार्मिकता, जो सदैव एक साथ काम करते हैं, परमेश्वर के सिंहासन की नींव हैं (भजन संहिता 89:14)।

हमारे लिए न्याय महत्वपूर्ण है। कल्पना कीजिए कि एडोल्फ हिटलर को जर्मनी में छिपा हुआ जीवित पा लिया जाता है, और उसे एक न्यायाधीश के सामने लाया जाता है। उसके अपराधों को पढ़ने में नौ घण्टे का समय लगता है, परन्तु अन्त में, न्यायाधीश यह कहता है कि, “मैं उसे देखता हूँ जिसे आपने किया है। लाखों लोग मारे गए। परन्तु मुझे प्रतीत होता आपने शिक्षा को प्राप्त कर लिया होगा, इसलिए मैं आपको जाने देता हूँ।” वह हथौड़े को जोर से मारता है और चिल्ला उठता है, “कोई दोष नहीं!” जब हम इस तरह के दृश्य के ऊपर विचार करते हैं, तो हमारे मन में क्या उठ खड़ा होता है? वह भावना अन्याय के प्रति आक्रोश की होती है। हम जानते हैं कि निर्णय सही नहीं दिया गया है, और यह हमारे लिए असहनीय है। बुराई के लिए बराबर के दण्ड को दिए जाने की आवश्यकता होती है। न्याय की भावना को हमने अपने सृष्टिकर्ता से धरोहर में पाया है, क्योंकि वह धर्मी है।

ब्रह्माण्ड का प्रत्येक सत्य परमेश्वर का सत्य है। गणित का प्रत्येक सूत्र, प्रत्येक वैज्ञानिक नियम, प्रत्येक सम्बन्ध सीमा परमेश्वर के चरित्र पर आधारित अपनी नीवों का पता लगा सकती है। मानवीय ज्ञान केवल उस सत्य की खोज है जो पहले से विद्यमान है। परमेश्वर ने हमें खोजने के लिए हमारे ब्रह्माण्ड में ज्ञान के अशों को छिपाया है। न्याय एक ऐसा सत्य है जिसका आरम्भ या स्पष्टीकरण नहीं है। यदि हम केवल विकसित हुए प्राणी होते, तो न्याय कोई अर्थ ही नहीं देता। मनुष्य के पास कोई अधिकार नहीं होगा, कोई आन्तरिक नैतिक कूट भाषा नहीं होगी, शाश्वत को पाने की कोई इच्छा ही नहीं होगी। परन्तु, क्योंकि हम परमेश्वर के स्वरूप में बनाए गए हैं (उत्पत्ति 1:27), नैतिकता, साहस, प्रेम और न्याय के विषय हमारे मन में है। वह सभी गुणों का पूर्ण रूप है परन्तु हमारे पास तो केवल उसका अंशमात्र ही है। वह सिद्ध प्रेम है (1 यूहन्ना 4:16)। वह पूरी भलाई है (भजन संहिता 106:1)। वह पूरी तरह से दयालु है (भजन संहिता 25:10)। और वह पूरी तरह से न्याय है (यशायाह 61:8)।

जब आदम और हव्वा ने पाप किया (उत्पत्ति 3), तो न्याय इसे अनदेखा नहीं कर सकता था। उनका अपराध हमें इतना बड़ा प्रतीत नहीं होता है। परन्तु इसे स्वर्ग के दृष्टिकोण से देखें। महान प्रभु परमेश्वर सर्वशक्तिमान, सब कुछ का निर्विरोध शासक, स्वर्गीय सेनाओं का परमेश्वर, सारी आराधना और भक्ति के योग्य उस धूल के द्वारा तुच्छ समझा गया जिसे उसने स्वयं लोगों के रूप में रचा था। उसने इन जीवों को अपने उद्देश्य और आनन्द के लिए बनाया था। उसने उन पर प्रेम और उदारता की बौछार की थी। परन्तु साथ ही उसने उन्हें स्वतन्त्र इच्छा भी दी। उसने उसे इसलिए बनाया ताकि वे वास्तव में उसके साथ एक सम्बन्ध स्थापित कर सके, जिसका अर्थ है कि वे उसके विरुद्ध भी जा सकते थे। परमेश्वर ने उन्हें जिस वाटिका में रख था उसके लिए एक आज्ञा दी थी कि — वहाँ के एक विशेष वृक्ष के फल को न खाए। यदि उन्होंने ऐसा किया, तो वे मर जाएंगे। परमेश्वर ने उन्हें उनके विकल्प दिखाए और उन्हें परिणामों को बताया था।

परमेश्वर ने उसकी सृष्टि के लिए प्रेमपूर्ण प्रबन्ध को किया और उन्हें उस परिणाम के प्रति चेतावनी दी जिसे वह जानता था कि यदि वे आज्ञा का पालन नहीं करते तो क्या होगा। परन्तु आदम और हव्वा ने अवज्ञा को चुना; उन्होंने अपना मार्ग चुना। हव्वा को शैतान ने धोखा दिया और उन्हें लगा कि कदाचित् परमेश्वर उनसे दूर हो रहा है, इसलिए उसने वह फल खाया जिसे परमेश्वर ने मना किया था। आदम ने तो फल को आसानी से ही खा लिया। उस क्षण इस प्राणी ने सृष्टिकर्ता के विरुद्ध उच्च राजद्रोह किया। न्याय कार्यवाही किए जाने की मांग करता है। परमेश्वर के लिए देशद्रोह या बहाने बनाने को अनदेखा करना न्याय नहीं होगा। क्योंकि परमेश्वर धर्मी है, वह किसी ऐसे कानून को नहीं बना सकता है, जिसके लिए दण्ड को स्थापित किया गया हो, और फिर कानून के टूट जाने पर उसका पालन न किया जाए। क्योंकि परमेश्वर प्रेम भी है, उसके पास मनुष्य को नाश किए बिना न्याय को सन्तुष्ट करने का एक तरीका था। न्याय उच्च राजद्रोह के लिए मृत्यु दण्ड की मांग करता है, इसलिए कुछ या किसी को मरना पड़ेगा। न्याय की मांगों को पूरा करने के लिए एक विकल्प लाया गया। आदम और हव्वा को ढकने के लिए एक निर्दोष जानवर को मार दिया गया, जिसने न केवल उनके शरीरों को ढकने का काम किया, अपितु उनके पाप को भी ढकने का काम किया (उत्पत्ति 3:21)।

हजारों वर्षों पश्चात्, न्याय एक बार फिर से सदैव के लिए और सभी के लिए सन्तुष्ट किया गया क्योंकि परमेश्वर ने अपने पुत्र को संसार में हमारे लिए विकल्प के रूप में भेजा (2 कुरिन्थियों 5:21)। परमेश्वर ने हमें युगों से पाप के नकारात्मक परिणामों के प्रति प्रेम से भरकर चेतावनी, यह विनती करते हुए दी है कि हम स्वयं को उससे अलग न करें और उस मार्ग पर न चले जाएँ जो केवल मृत्यु की ओर ले जाता है (रोमियों 3:23)। “हम जैसा चाहेंगे, वैसा ही करेंगे” हमने प्रति उत्तर दिया है। परमेश्वर केवल उसके विरुद्ध हमारे उच्च राजद्रोह को अनदेखा नहीं कर सकता है, अन्यथा वह पूरी तरह से धर्मी नहीं होगा। वह हमारे द्वारा विद्रोह किए जाने के बाद भी, अपने प्रेम को वापस नहीं ले सकता है, अन्यथा वह सिद्ध प्रेम नहीं होगा। इसलिए यीशु मेम्ना बन गया (यूहन्ना 1:29) जिसे परमेश्वर ने न्याय की वेदी के ऊपर बलिदान किया था। मसीह “ने भी, अर्थात् अधर्मियों के लिये धर्मी ने, पापों के कारण एक बार दु:ख उठाया, ताकि हमें परमेश्‍वर के पास पहुँचाए” (1 पतरस 3:18)।

क्योंकि न्याय सन्तुष्ट हो गया है, परमेश्वर ने मसीह में (रोमियों 3:24), उन सभी लोगों पर “कोई दोषी नहीं” का उच्चारण कर दिया है, जो उसके नाम को लेते हैं (यूहन्ना 1:12)। न्याय अब इस बात पर जोर देता है कि, जब एक बार पाप का भुगतान कर दिया गया है, तो इसे फिर से नहीं लाया जा सकता है। जब हमारे पाप उसके बलिदान के लहू के नीचे होते हैं, तो परमेश्वर उन्हें हमारे विरुद्ध थामे नहीं रखता है (रोमियों 8:1; कुलुस्सियों 2:14; 1 पतरस 2:24; यशायाह 43:25)। परमेश्वर धर्मी बने रहता है; वह अपने स्वयं की न्याय संहिता का उल्लंघन उन लोगों को क्षमा करते हुए नहीं कर रहा है जो इसके परिणामों की प्राप्ति के योग्य हैं। उद्धार एक न्यायसंगत परिणाम है क्योंकि परमेश्वर ने यीशु की मृत्यु और पुनरुत्थान को उसके क्रोध को सन्तुष्ट करने के लिए पर्याप्त रूप से घोषित किया है। व्यवस्था का शाप जिसकी प्राप्ति के लिए हम योग्य थे उसे यीशु ने क्रूस पर ले लिया है (गलातियों 3:13)।

परमेश्वर धर्मी है, और उसका न्याय उसके चरित्र का एक अनिवार्य हिस्सा है ठीक उसी तरह कि उसका प्रेम और दया अनिवार्य हैं। उसके न्याय के बिना, पाप अनियन्त्रित हो जाएगा। बुराई राज्य करेगी। आज्ञाकारिता का कोई प्रतिफल नहीं होगा। हम एक ऐसे परमेश्वर का सम्मान नहीं कर सकते हैं जो धर्मी नहीं है। मीका 6:8 उन तीन गुणों को संक्षेप में प्रस्तुत करता है जिन्हें परमेश्वर हमें प्रदर्शित करना चाहता है: “हे मनुष्य, वह तुझे बता चुका है कि अच्छा क्या है; और यहोवा तुझ से इसे छोड़ और क्या चाहता है, कि तू न्याय से काम करे, और कृपा से प्रीति रखे, और अपने परमेश्‍वर के साथ नम्रता से चले।”

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