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प्रश्न

विवेक क्या है?

उत्तर


विवेक या अन्त:करण अर्थात् अन्तरात्मा को मानवीय मन के उस भाग के रूप में परिभाषित किया गया है, जब हम इसका उल्लंघन करते हैं, तो यह मानसिक पीड़ा और अपराध की भावनाओं को, और जब हमारे कार्य, विचार और शब्द हमारी मूल्य पद्धतियों के अनुरूप होते हैं, तो यह सुख और कल्याण की भावनाओं को प्रेरित करता है। नए नियम के सभी सन्दर्भों में "विवेक" का अनुवाद यूनानी शब्द सूनीदिसेस से किया गया है, जिसका अर्थ "नैतिक जागरूकता" या "नैतिक चेतना" से है। विवेक तब प्रतिक्रिया व्यक्त करता है, जब किसी के कार्य, विचार और शब्द सही का गलत के मापदण्ड के अनुरूप, या इसके विपरीत होते हैं।

नए नियम के सूनीदिसेस के तुल्य पुराने नियम में कोई इब्रानी शब्द नहीं पाया जाता है "विवेक" के लिए एक इब्रानी शब्द की कमी यहूदी वैश्विक दृष्टिकोण के कारण हो सकती है, जो व्यक्तिवादी होने की अपेक्षा साम्प्रदायिक था। इब्रानी लोग स्वयं को एक वाचाई समुदाय के सदस्य के रूप में मानते थे, जो एक व्यक्ति की अपेक्षा सामूहिक रूप से परमेश्‍वर और उसकी व्यवस्था से सम्बन्धित था। दूसरे शब्दों में, इब्रानी लोगों को परमेश्‍वर के सामने अपनी स्थिति का पूरा भरोसा था, कि इब्रानी जाति यदि पूर्ण रीति से परमेश्‍वर के साथ अच्छी संगति में है, तो उसका कुछ नुक्सान नहीं हो सकता है।

विवेक के लिए नए नियम की अवधारणा अपने स्वभाव में अधिक व्यक्तिगत् है और इसमें तीन प्रमुख सत्य सम्मिलित हैं। सबसे पहले, विवेक मनुष्य के लिए आत्म-मूल्यांकन का अभ्यास करने के लिए ईश्‍वर-प्रदत्त क्षमता है। पौलुस कई बार अपने स्वयं के विवेक को "अच्छा" और "शुद्ध" (प्रेरितों के काम 23:1; 24:16; 1 कुरिन्थियों 4:4) के रूप में उद्धृत करता है। पौलुस अपने शब्दों और कामों की स्वयं जाँच करता है और पाता है कि ये उसके नैतिक सिद्धान्त और मूल्य पद्धति के अनुरूप पाए जाते हैं, जो बिना किसी सन्देह के परमेश्‍वर के मापदण्डों पर आधारित थे। उसका विवेक उसके मन की निष्ठा की पुष्टि करता है।

दूसरा, नया नियम विवेक को किसी बात का गवाह होने के रूप में प्रदर्शित करता है। पौलुस कहता है कि अन्यजातियों का विवेक परमेश्‍वर के द्वारा उनके मनों के ऊपर लिखी हुई व्यवस्था की गवाही देता है, यद्यपि उनके पास में मूसा की व्यवस्था नहीं है (रोमियों 2:14-15)। वह साथ ही अपने स्वयं के विवेक को एक गवाह होने के रूप में आग्रह करता है, कि यह सत्य बोलता है (रोमियों 9:1) और यह कि उसने स्वयं के जीवन को अन्य लोगों के साथ व्यवहार करने में पवित्रता और गम्भीरता के साथ प्रस्तुत किया है (2 कुरिन्थियों 1:12)। वह यह भी कहता है कि उसका विवेक उसे बताता है कि उसके कार्य ईश्‍वर और अन्य पुरुषों के विवेक के गवाह हैं (2 कुरिन्थियों 5:11)।

तीसरा, विवेक एक व्यक्ति की मूल्य पद्धति का सेवक है। एक अपरिपक्व या कमजोर मूल्य पद्धति एक कमजोर विवेक का उत्पादन करती है, जबकि पूरी तरह से ज्ञात मूल्य पद्धति सही और गलत के एक दृढ़ अर्थ को उत्पन्न करती है। मसीही विश्‍वासी के जीवन में, एक व्यक्ति का विवेक बाइबल की सच्चाइयों की अपर्याप्त समझ से प्रेरित किया जा सकता है और सामने पड़े हुए विषय के प्रति असंगत के साथ आत्मग्लानि और शर्म की भावनाओं को उत्पन्न कर हो सकती है। विश्‍वास में परिपक्वता विवेक को मजबूती प्रदान करता है।

विवेक का अन्तिम कार्य पौलुस मूर्तियों के सामने चढ़ाए हुए बलिदान के भोजन के खाने के बारे में अपने निर्देशों में बताता है। वह इस बात को प्रस्तुत करता है कि क्योंकि मूर्तियाँ वास्तविक ईश्‍वर नहीं हैं, तो यह बात कोई भिन्नता नहीं प्रगट करती है कि भोजन उनके सामने बलिदान किया गया या नहीं। परन्तु कुरिन्थ की कलीसिया में कुछ विश्‍वासी अपनी समझ में कमजोर थे और विश्‍वास करते थे कि ऐसे ईश्‍वर वास्तव में विद्यमान हैं। ये अपरिपक्व विश्‍वासी इन देवताओं के सामने चढ़ाएँ हुए बलिदानों के भोजन को खाने के विचार से ही भयभीत थे, क्योंकि उनका विवेक गलत पूर्वाग्रहों और अन्धविश्‍वासी विचारों से भरा पड़ा था। इसलिए, पौलुस उन लोगों को अपनी समझ में अधिक परिपक्व होने के लिए प्रोत्साहित करता है कि वे अपने कमज़ोर साथियों के विवेक को अपने कार्यों की निन्दा करने के लिए उनके भोजन खाने की स्वतन्त्रता का उपयोग न करें। यहाँ शिक्षा यह है कि यदि हमारे विवेक परिपक्व विश्‍वास और समझ के कारण स्पष्ट हैं, तो हम कम विवेक वाले विश्‍वासियों के लिए ठोकर का कारण, उस स्वतन्त्रता का प्रयोग करते हुए जो एक दृढ़ विवेक के साथ आती है, नहीं बन सकते हैं।

नए नियम में विवेक के लिए एक अन्य सन्दर्भ एक ऐसा विवेक का होना है, जो "दागा" हुआ या इतना अधिक असंवेदनशील हो गया है, मानो कि यह गर्म जलते हुए लोहे के साथ दागा गया था (1 तीमुथियुस 4:1-2)। इस तरह का विवेक कठोर और संकुचित हो जाता है, और आगे को कुछ भी महसूस नहीं करता है। एक दागे हुए विवेक के साथ कोई भी व्यक्ति तत्परता के साथ अपनी स्वयं की बातें नहीं सुनता, और वह इसकी चिन्ता न करते हुए पाप कर सकता है, वह स्वयं को सोच के भ्रम में डाल देता है, और अन्य लोगों के साथ बिना किसी सहानुभूतिपूर्वक और करुणा के साथ व्यवहार कर सकता है।

मसीही विश्‍वासी होने के नाते, हमें स्वयं को शुद्ध विवेक के साथ परमेश्‍वर की आज्ञा का पालन करना और अच्छे चरित्र के साथ अपने सम्बन्ध को परमेश्‍वर के साथ बनाए रखना होगा। हम ऐसा उसके वचन को अपने जीवन में लागू करने के द्वारा, अपने मन को निरन्तर और नम्र करते हुए करते हैं। हम उन का विचार करते हैं, जिनके विवेक कमजोर हैं, उनके साथ मसीही प्रेम और करुणा के साथ व्यवहार करते हैं।

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