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प्रश्न

पवित्र हँसी क्या है?

उत्तर


वाक्यांश "पवित्र हँसी" एक ऐसी घटना का वर्णन करने के लिए सृजा गया था, जिस में एक व्यक्ति अनियन्त्रित तरीके से हँसता है, सम्भवतः पवित्र आत्मा से भरे हुए होने के परिणामस्वरूप। इसे अनियन्त्रित हँसी की गड़गड़ाहट, जो कभी-कभी मूर्छा के साथ आती है या पृथ्वी पर गिर जाने के साथ आती है, की विशेषता के साथ चित्रित किया जाता है। जिन लोगों ने इसका अनुभव पहली बार किया है, उनके अनुभव के वृतान्त के अनुसार इसका अनुभव एक दूसरे से भिन्न होता है, परन्तु सभी इसे पवित्र आत्मा की "आशीष" या "अभिषेक" का संकेत मानते हैं।

पवित्र हँसी का अनुभव, अपने स्वभाव के कारण ही एक आत्मनिष्ठक अर्थात् व्यक्तिपरक अनुभव है। इसलिए, इस विषय की सच्चाई का पता लगाने के प्रयास में, हमें वस्तुनिष्ठक होने का प्रयास करना चाहिए। जब सच्चाई की हमारी परिभाषा संसार के हमारे अनुभव के ऊपर निर्भर करती है, तब हमें अपनी सोच में पूरी तरह से सम्बन्धित होने से अधिक दूर नहीं होते हैं। संक्षेप में कहना, भावनाएँ हमें नहीं बताती हैं कि सच क्या है। भावनाएँ बुरी नहीं हैं, और कभी-कभी हमारी भावनाएँ बाइबल की सच्चाई के अनुरूप होती हैं। तथापि, वे अधिक बार हमारे पाप के स्वभाव के अनुरूप ही होती हैं। मन के चंचल स्वभाव एक बहुत ही अविश्‍वसनीय परिधि को सृजित करता है। "मन तो सब वस्तुओं से अधिक धोखा देने वाला होता है, उस में असाध्य रोग लगा है; उसका भेद कौन समझ सकता है?" (यिर्मयाह 17:9)। यह धोखा देने वाले — मन का सिद्धान्त विशेष रूप से "पवित्र हँसी" के रूप में पहचानने वाली घटना के ऊपर लागू होता है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि लोग वास्तव में आत्मजागृति की सभाओं में अनियन्त्रित हँसी को आरम्भ कर देते हैं। यह एक सच्चाई है। परन्तु वास्तव में इसका अर्थ क्या है?

हँसी को बाइबल में कई बार सम्बोधित किया गया है। अक्सर इसका उपयोग मजाक या घृणास्पद प्रतिक्रिया का वर्णन करने के लिए किया जाता है, जैसा कि अब्राहम और सारा के साथ हुआ था, जो तब हँसे थे, जब परमेश्‍वर ने उन्हें बताया कि वे उनके बुढ़ापे में उनसे एक बच्चा उत्पन्न होगा। कुछ वचन इसका उपयोग उपहास का संकेत देने में करते हैं (भजन संहिता 59:8; भजन संहिता 80:6; नीतिवचन 1:26), और तौभी दूसरे लोग हँसी के स्वभाव के बारे में ही स्पष्ट कथन को देते हैं। उदाहरण के लिए, सुलैमान, सभोपदेशक 2:2 में निम्नलिखित अवलोकन देता है, "मैंने हँसी के विषय में कहा, 'यह तो बावलापन है,' और आनन्द के विषय में, उस से क्या प्राप्त होता है?' वह तब 7:3 में आगे कहता हुआ चला जाता है कि, "हँसी से खेद उत्तम है, क्योंकि मुँह पर के शोक से मन सुधरता है।" नीतिवचन 14:13 इसके विपरीत ही बात करती है: "हँसी के समय भी मन उदास होता है, और आनन्द के अन्त में शोक होता है।" यह दोनों ही सन्दर्भ सच्चे हैं: एक उदास व्यक्ति अपनी उदासी को ढकने के लिए हँस सकता है, और एक व्यक्ति रो सकता है, यद्यपि वह अपने अन्तर में प्रसन्न हो। इसलिए, न केवल भावना हमें सच्चाई देने में विफल रहते हैं, अपितु हम यह भी देखते हैं कि हँसी सदैव आनन्द का संकेत नहीं होती है, परन्तु इसका अर्थ क्रोध, दुःख या उपहास भी हो सकता है। इसी तरह, हँसी की कमी का अर्थ दुःख नहीं है। हँसना एक आत्मनिष्ठक अर्थात् व्यक्तिपरक अनुभव है।

"पवित्र हँसी" के नाम से पुकारे जाने वाली शिक्षा के विरूद्ध सबसे अधिक दृढ़ पवित्रशास्त्रीय तर्क गलातियों 5:22-23 में पाया जाता है। यहाँ ऐसा कहा गया है, "पर आत्मा का फल प्रेम, आनन्द, मेल, धीरज, और कृपा, भलाई, विश्‍वास, नम्रता, और संयम हैं; ऐसे ऐसे कामों के विरोध में कोई व्यवस्था नहीं।" यदि आत्म-संयम परमेश्‍वर का आत्मा का फल है, तो कैसे अनियन्त्रित हँसी भी उनके आत्मा का फल हो सकती है? आत्म-जागृति के अगुवों का दावा है कि आत्मा के साथ "भरे हुए" होने का अर्थ यह है कि हम उनकी लहर के द्वारा एक तरह से "फटके जाते" हैं। परन्तु गलातियों 5:22-23 के अनुसार, परमेश्‍वर लोगों को मतवाले में होने की तरह व्यवहार करने या अनियन्त्रित तरीके से हँसते हुए या आत्मा के अभिषेक के परिणामस्वरूप पशुओं की तरह शोर मचाने देगा, सीधी तरह से उस तरीके के विपरीत है, जिसमें आत्मा काम करता है। गलतियों 5 में वर्णित आत्मा ऐसा आत्मा है, जो हमारे भीतर आत्म-संयम को बढ़ावा देता है, न कि इसके विपरीत। अन्त में, बाइबल में कोई भी यीशु की तुलना से अधिक पवित्र आत्मा से भरा हुआ नहीं था, और बाइबल कहीं पर भी एक बार भी उसके हँसने को लिपिबद्ध नहीं करती है।

इन बातों के प्रकाश में, 1 कुरिन्थियों 14 के निम्नलिखित सन्दर्भ के ऊपर ध्यान देना अधिक लाभकारी होगा, जहाँ पौलुस अन्यभाषा में बोलने के बारे में बात करता है। "इसलिये हे भाइयो, यदि मैं तुम्हारे पास आकर अन्य भाषाओं में बातें करूँ और प्रकाश, या ज्ञान, या भविष्यद्वाणी, या उपदेश की बातें तुम से न कहूँ, तो मुझ से तुम्हें क्या लाभ होगा?" (वचन 6)।

"और यदि तुरही का शब्द साफ न हो, तो कौन लड़ाई के लिये तैयारी करेगा? ऐसे ही तुम भी यदि जीभ से साफ-साफ बातें न कहो, तो जो कुछ कहा जाता है वह कैसे समझा जाएगा? तुम तो हवा से बातें करनेवाले ठहरोगे" (वचन 8-9)।

"इसलिये हे भाइयो, क्या करना चाहिए? जब तुम इकट्ठे होते हो, तो हर एक के हृदय में भजन, या उपदेश, या अन्यभाषा, या प्रकाश, या अन्यभाषा का अर्थ बताना रहता है। सब कुछ आत्मिक उन्नति के लिये होना चाहिए। यदि अन्य भाषा में बातें करनी हों, तो दो, या बहुत हो तो तीन जन बारी-बारी से बोलें और एक व्यक्ति अनुवाद करे। परन्तु यदि अनुवाद करनेवाला न हो, तो अन्य भाषा बोलनेवाला कलीसिया में शान्त रहे, और अपने मन से और परमेश्‍वर से बातें करे" (वचन 26-28)।

"... क्योंकि परमेश्‍वर गड़बड़ी का नहीं, परन्तु शान्ति का परमेश्‍वर है; जैसा पवित्र लोगों की सब कलीसियाओं में है" (वचन 33)।

उन दिनों में, कलीसियाओं में कई लोग उन भाषाओं में बोल रहे थे, जो दूसरों के द्वारा समझने योग्य ही नहीं थीं, और इसलिए पौलुस ने कहा कि वे कलीसिया में व्यर्थ थीं, क्योंकि वक्ता दूसरों को अपने द्वारा बोले गए का अर्थ ही नहीं बता पा रहा था। यही पवित्र हँसी के ऊपर भी लागू किया जा सकता है। यह तब तक किसी को कोई लाभ नहीं देता (पौलुस कहता है) जब तक कि हम एक दूसरे के साथ प्रकाशन, उपदेश, ज्ञान और सत्य की बातें न करें? एक बार पुन: वह कहता है, "सब बातें उन्नति के लिए होनी चाहिए।" वह अपने तर्क को यह कहते हुए समाप्त करता है कि, "परमेश्‍वर गड़बड़ी का परमेश्‍वर नहीं, परन्तु शान्ति का परमेश्‍वर है," जो यह स्पष्ट करता है कि वह यह नहीं चाहता कि कलीसिया के भीतर का वातावरण भ्रम और अर्थहीनता से भरा हुआ हो, अपितु इसे एक दूसरे के लिए आगे बढ़ने और उन्नति का होना चाहिए।

ऐसा प्रतीत होता है कि पौलुस जो कुछ कह रहा है, वह उस श्रेणी के अन्तर्गत आएगा जिसे "पवित्र हँसी" कहा जाता है, जो कि मसीह की देह को कोई "उन्नति नहीं" देती है और इसलिए इससे बचाना चाहिए। हमने यह स्वीकार किया है कि क) हँसी एक अविश्‍वसनीय भावनात्मक प्रतिक्रिया है; ख) यह कई भिन्न भावनाओं का संकेत हो सकता है; तथा ग) यह किसी लाभ को लेकर नहीं आता है। इसके अतिरिक्त, भावना के अनियन्त्रित लहर पवित्र आत्मा के स्वभाव के विपरीत हैं। इसलिए, यह परामर्श दिया जाता है कि, "पवित्र हँसी" को परमेश्‍वर की निकटता में आगे बढ़ने या उसकी आत्मा का अनुभव करने के लिए एक साधन के रूप में नहीं देखना चाहिए।

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