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प्रश्न

मनुष्य का प्राण क्या है?

उत्तर


बाइबल पूर्णता के साथ मनुष्य के प्राण के स्वभाव के लिए स्पष्टता से नहीं बताती है। परन्तु जिस तरीके से पवित्रशास्त्र में शब्द प्राण का उपयोग हुआ है, उस तरह से इसका अध्ययन करने पर हम कुछ निष्कर्ष तक पहुँच सकते हैं। सरल रूप में कहना, मनुष्य का प्राण एक व्यक्ति का वह अंग है, जो कि शारीरिक नहीं है। यह प्रत्येक मनुष्य का एक भाग होता है, जो शरीर के द्वारा मृत्यु का अनुभव करने के पश्चात् भी शाश्‍वतकाल तक जीवित रहता है। उत्पत्ति 35:18 राहेल, याकूब की पत्नी की मृत्यु का वर्णन यह कहते हुए करती है कि उसने अपने पुत्र का नाम बेनानी अर्थात् "जब उसका प्राण निकल" रहा था। इससे हम जानते हैं कि प्राण शरीर से भिन्न है और यह शारीरिक मृत्यु उपरान्त निरन्तर जीवित रहता है।

मनुष्य का प्राण एक व्यक्ति के व्यक्तित्व के लिए केन्द्रीय होता है। जैसे सी. एस. लुईस ने कहा है, "आपके पास प्राण नहीं है। आप स्वयं एक प्राण हैं। आपके पास एक शरीर है।" दूसरे शब्दों में, व्यक्तित्व शरीर पर आधारित नहीं है। इसके लिए एक प्राण आवश्यक है। बाइबल में निरन्तर, लोगों को "प्राणी" के रूप में उद्धृत किया गया है (निर्गमन 31:14; नीतिवचन 11:30), विशेष रूप से उस पृष्ठभूमि में जो मनुष्य के जीवन और उसके व्यक्तित्व के मूल्य पर या "सम्पूर्ण अस्तित्व" की अवधारणा पर ध्यान केन्द्रित करता है (भजन संहिता 16:9-10; यहेजकेल 18:4; प्रेरितों के काम 2:41; प्रकाशितवाक्य 18:13)।

मनुष्य का प्राण ह्दय से भिन्न है (व्यवस्थाविवरण 26:16; 30:6) और आत्मा (1 थिस्सलुनीकियों 5:23; इब्रानियों 4:12) और मन (मत्ती 22:37; मरकुस 12:30; लूका 10:27) से भिन्न है। मनुष्य का प्राण परमेश्‍वर के द्वारा रचा गया है (यिर्मयाह 38:16)। यह दृढ़ और अस्थिर भी हो सकता है (2 पतरस 2:14); यह खोया हुआ या उद्धार प्राप्त भी हो सकता है (याकूब 1:21; यहेजकेल 18:4)। हम जानते हैं कि मनुष्य के प्राण को प्रायश्चित की आवश्यकता है (लैव्यव्यस्था 17:11) और यह हमारा वह भाग है, जो पवित्र आत्मा के कार्य और सत्य के द्वारा शुद्ध और पवित्र होता है (1 पतरस 1:22)। यीशु हमारे प्राणों का महान् चरवाहा है (1 पतरस 2:25)।

मत्ती 11:29 हमें बताता है कि हम यीशु मसीह की ओर हमारे प्राणों के लिए आराम प्राप्ति के लिए मुड़ सकते हैं। भजन संहिता 16:9-10 मसीह के आगमन की प्रतिज्ञा करने वाला एक भजन है, जो हमें यह देखने देता है कि यीशु के पास भी प्राण था। दाऊद ने लिखा है, "इस कारण मेरा हृदय आनन्दित और मेरी आत्मा मगन हुई है; मेरा शरीर भी चैन से रहेगा। क्योंकि तू मेरे प्राण को अधोलोक में न छोड़ेगा, न अपने पवित्र भक्त को सड़ने देगा।" यह दाऊद के लिए नहीं बोला जा सकता है (जैसा कि पौलुस प्रेरितों के काम 13:35-37 में इंगित करता है) क्योंकि दाऊद के शरीर ने तो पतन और सड़ाहट को अवश्य ही देखा था, जब उसकी मृत्यु हुई है। परन्तु यीशु मसीह के शरीर ने कभी किसी तरह की कोई भ्रष्टता को नहीं देखा है (उसका पुनरुत्थान हो गया था), और उसका प्राण अधोलोक में सड़ने के लिए नहीं छोड़ा गया था। यीशु के पास, मनुष्य की सन्तान होने के नाते, प्राण हैं।

अक्सर मनुष्य की आत्मा बनाम मनुष्य के प्राणों के बारे में उलझन पाई जाती है। कई स्थानों में, पवित्रशास्त्र इन शब्दों को एक दूसरे के लिए उपयोग करता हुआ प्रतीत होता है, परन्तु हो सकता है कि इसमें सूक्ष्म रीति से भिन्नता हो। अन्यथा, कैसे परमेश्‍वर का वचन "प्राण और आत्मा को आर-पार छेदता" (इब्रानियों 4:12)? जब बाइबल मनुष्य के आत्मा के बारे में बात करती है, तो यह अक्सर एक आन्तरिक शक्ति की बात कर रही होती है, जो एक व्यक्ति को इस या उस दिशा से उत्तेजित करती है। इसे निरन्तर प्रेरक, एक गतिशील शक्ति के रूप में दिखाया गया है (उदाहरण के लिए., गिनती 14:24)।

ऐसा कहा गया है कि केवल दो ही बातें अर्थात् : परमेश्‍वर का वचन और मनुष्य का प्राण ही बचे रह जाएँगे। ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्‍वर के वचन की तरह ही, प्राण भी अविनाशी है। यह विचार दोनों ही अर्थात् गम्भीर और भययुक्त प्रेरणादायी होना चाहिए। अभी तक इस पृथ्वी पर वास करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के पास प्राण थे, और वे सारे प्राण किसी स्थान में अस्तित्व में हैं। जो आप से मिलता है, के पास अनन्तकालीन प्राण है। प्रश्‍न यह है कि वे कहाँ पर हैं? वे प्राणी जो परमेश्‍वर को ग्रहण करने से इन्कार कर देते हैं, अपने द्वारा किए हुए पापों के दण्ड के द्वारा दोषी ठहराए जाते हुए शाश्‍वतकाल के लिए नरक में जाएँगे (रोमियों 6:23)। परन्तु वे प्राणी जो स्वयं के पापी होने को और परमेश्‍वर की क्षमा के अनुग्रहकारी वरदान को ग्रहण कर लेते हैं, सदैव के लिए अपने चरवाहे के साथ सुखदाई जल के पास जाएँगे और उन्हें किसी बात की कोई घटी न होगी (भजन 23:2)।

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