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प्रश्न

क्या परमेश्वर प्रभुता सम्पन्न है या क्या हमारी स्वतंत्र इच्छा है?

उत्तर


जब हम स्वतंत्र इच्छा के बारे में बात करते हैं, तो हमारा सरोकार सामान्य रूप उद्धार के विषय से होता है। हम जानना चाहेंगे कि वास्तव में हमारा शाश्वत गंतव्य किस के नियन्त्रण में है।

मनुष्य के उद्धार के प्रति किसी भी तरह की चर्चा मानवीय स्वभाव की समझ से आरम्भ होनी चाहिए क्योंकि मनुष्य की इच्छा उसके स्वभाव से बन्धी हुई है। एक कैदी को कारावास के कमरे में इधर और उधर जाने की स्वतंत्रता होती है, परन्तु वह उस कमरे की दीवारों से बन्धा हुआ होता है और इससे आगे नहीं जा सकता है, चाहे वह कितना भी इच्छा क्यों न कर ले। यही सभी मनुष्यों के साथ है। पाप के कारण, लोग भ्रष्टता और दुष्टता के एक कमरे के भीतर कैद हो जाते हैं जो हमारे अस्तित्व के मूल में विस्तारित हो जाता है। एक व्यक्ति का प्रत्येक भाग पाप के बन्धन — अर्थात् हमारा शरीर, हमारा मन और हमारी इच्छाएँ बन्धन में हैं। यिर्मयाह 17:9 हमें मानवीय मन की स्थिति के बारे में बताता है: यह “तो सबसे अधिक धोखा देने वाला होता है।” हमारी स्वाभाविक, अनवीनीकृत अवस्था में, हम शारीरिक मन वाले होते हैं, न कि आत्मिक मन वाले। “शरीर पर मन लगाना तो मृत्यु है, परन्तु आत्मा पर मन लगाना जीवन और शान्ति है; क्योंकि शरीर पर मन लगाना तो परमेश्‍वर से बैर रखना है, क्योंकि न तो परमेश्‍वर की व्यवस्था के अधीन है और न हो सकता है” (रोमियों 8:6-8 7)। ये वचन बताते हैं कि इससे पहले कि हम बचाए जाएँ, हम परमेश्वर के साथ शत्रुता (युद्ध) में हैं, हम परमेश्वर और उसकी व्यवस्था के प्रति स्वयं को समर्पित नहीं करते हैं, न ही हम कर सकते हैं। बाइबल स्पष्ट करती है कि, अपनी स्वाभाविक अवस्था में, मनुष्य उसे चुनने में असमर्थ है जो अच्छा और पवित्र हो। दूसरे शब्दों में, हमारे पास परमेश्वर को चुनने के लिए “स्वतन्त्र इच्छा” नहीं है क्योंकि हमारी इच्छा स्वतन्त्र नहीं है। यह हमारे स्वभाव के कारण लाचार है, जिस प्रकार कैदी अपने कमरे के कारण लाचार होता है।

फिर किसी को कैसे बचाया जा सकता है? इफिसियों 2:1 इस प्रक्रिया का वर्णन करती है। हम “जो अपने अपराधों और पापों के कारण मरे हुए थे” मसीह के माध्यम से “जिलाए गए” हैं। एक मृत व्यक्ति स्वयं को जीवित नहीं कर सकता क्योंकि उसके पास ऐसा करने के लिए आवश्यक सामर्थ्य का अभाव होता है। लाजर चार दिनों तक अपनी कब्र में लेटा रहा और स्वयं को फिर से जीवित करने की बात नहीं कर पाया। मसीह वहाँ आया और उसे जीवन में वापस आ जाने की आज्ञा दी (यूहन्ना 11)। ऐसा ही हमारे साथ भी होता है। हम आत्मिक रूप से मृत हैं, जी उठने में असमर्थ हैं। परन्तु “जब हम पापी ही थे तभी मसीह हमारे लिए मरा” (रोमियों 5:8)। वह हमें हमारी आत्मिक कब्रों से बाहर बुलाता है और हमें पूरी तरह से नया स्वभाव देता है, ऐसा स्वभाव जो एक पाप से अशुद्ध न हो जैसा कि हमारा पुराना स्वभाव था (2 कुरिन्थियों 5:17)। परमेश्वर ने हमारी आत्माओं की हताश और असहाय अवस्था को देखा, और अपने महान प्रेम और दया में, अपनी प्रभुता में होकर अपने पुत्र को हमें छुड़ाने के लिए इस संसार भेजने के लिए चुना। उसके अनुग्रह से हम विश्वास के वरदान के माध्यम से बच जाते हैं जिसे वह हमें देता है ताकि हम यीशु पर विश्वास कर सकें। उसका अनुग्रह एक मुफ्त उपहार है, हमारा विश्वास एक मुफ्त उपहार है, और हमारा उद्धार उन लोगों को दिया गया एक मुफ्त उपहार है, जिन्हें परमेश्वर ने “संसार की नींव रखने से पहले” चुन लिया है (इफिसियों 1:4)। उसने इसे इस तरीके से करने के लिए क्यों चुना? क्योंकि “अपनी इच्छा के भले अभिप्राय के अनुसार, कि उसके उस अनुग्रह की महिमा की स्तुति हो” (इफिसियों 1:5-6)। यह समझना महत्वपूर्ण है कि उद्धार की योजना मनुष्य को नहीं, अपितु परमेश्वर को महिमा देने के लिए बनाई गई है। हमारी प्रतिक्रिया “उसके अनुग्रह की महिमा” के लिए उसकी स्तुति करना है। यदि हम अपने उद्धार को स्वयं चुनते, तो महिमा किसे मिलेगी? हमें मिलेगी, और परमेश्वर ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह किसी और को उस महिमा को नहीं देगा जिसके लिए केवल वही योग्य है (यशायाह 48:11)।

यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठ खड़ा होता है कि, हम कैसे जानते हैं कि “संसार की नींव से” पहले किसको बचाया गया है? हम नहीं जानते हैं। यही कारण है कि हम यीशु मसीह के माध्यम से पृथ्वी के अन्त तक उद्धार के शुभ सन्देश को ले जाते हैं, सभी को पश्चाताप करने और परमेश्वर के अनुग्रह के उपहार को प्राप्त करने के लिए कहते हैं। दूसरा कुरिन्थियों 5:20 हमें बताता है कि अधिक देर होने से पहले हमें दूसरों के साथ परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप स्थापित करने के लिए विनती करनी है। हम यह नहीं जान सकते कि परमेश्वर किसको उसकी पाप की कैद से छुटकारा देने के लिए चुनेगा। हम इस विकल्प को उसके पास ही छोड़ देते हैं और सभी को सुसमाचार प्रस्तुत करते हैं। जो यीशु के पास आते हैं, वह “उसे कभी न निकलेगा” (यूहन्ना 6:37)।

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