प्रश्न
प्रभुत्ववादी उद्धार क्या है?
उत्तर
प्रभुत्ववादी उद्धार का धर्मसिद्धान्त सिखाता है कि मसीह को प्रभु मानते हुए उसके प्रति समर्पित होना मसीह को उद्धारकर्ता के रूप में विश्वास करने के साथ-साथ चलता है। प्रभुत्ववादी उद्धार इस तरह की शिक्षा के एकदम विपरीत है, जिसे आसान-विश्वासवाद कह कर पुकारा जाता है, जो यह शिक्षा देता है कि उद्धार तथ्यों के एक निश्चित समूह की स्वीकृति के माध्यम से आता है।
जॉन मैक आर्थर, अपनी पुस्तक यीशु के अनुसार सुसमाचार में यीशु ने प्रभुत्ववादी उद्धार के विषय की रूपरेखा को प्रस्तुत करते हुए, इसकी शिक्षाओं को इस तरह से सारांशित करते हैं: "विश्वास के लिए सुसमाचार की बुलाहट यह पूर्वधारणा है कि पापियों को अपने पाप से पश्चाताप करना चाहिए और मसीह के अधिकार के प्रति अधीन हो जाना चाहिए।" दूसरे शब्दों में, जो पापी पश्चाताप करने से इनकार करता है, वह नहीं बचता है, क्योंकि वह एक ही समय में अपने पाप और उद्धारकर्ता दोनों पर लंगर नहीं डाल सकता है। और एक पापी जो अपने जीवन में मसीह के अधिकार को अस्वीकार करता है, के पास बचाए जाने वाला विश्वास नहीं होता है, क्योंकि सच्चे विश्वास में परमेश्वर के प्रति आत्मसमर्पण सम्मिलित है। इस प्रकार, सुसमाचार के लिए बौद्धिक निर्णय लेने या प्रार्थना करने से कहीं ज्यादा किए जाने की आवश्यकता होती है; सुसमाचार का सन्देश चेलेपन का आह्वान है। भेड़ें अपने चरवाहे का अनुसरण विनम्र आज्ञाकारिता में करती हैं।
प्रभुत्ववादी उद्धार के समर्थकों ने यीशु के द्वारा उसके दिनों के धार्मिक पाखण्डियों को दी जाने वाली दोहराती हुई चेतावनी के रूप में इंगित किया है कि केवल आत्मिक तथ्यों से सहमत होने से व्यक्ति को बचाया नहीं जाता है। मन में परिवर्तन होना चाहिए। यीशु ने चेलेपन के उच्च मूल्य के ऊपर जोर दिया है: "जो कोई अपना क्रूस न उठाए, और मेरे पीछे न आए, वह भी मेरा चेला नहीं हो सकता" (लूका 14:27), और, "इसी रीति से तुम में से जो कोई अपना सब कुछ त्याग न दे, वह मेरा चेला नहीं हो सकता" (वचन 33)। इसी अनुच्छेद में, यीशु मूल्य की गिनती करने की बात करता है; किसी और स्थान पर, वह पूर्ण समर्पण के ऊपर जोर देता है: "कोई अपना हाथ हल पर रखकर पीछे देखता है, वह परमेश्वर के राज्य के योग्य नहीं" (लूका 9:62)।
पहाड़ी उपदेश में, यीशु कहता है कि अनन्त जीवन का मार्ग संकीर्ण है, जिस में चलने वाले केवल "थोड़े" ही हैं (मत्ती 7:14); इसके विपरीत, आसान-विश्वासवाद का मार्ग चौड़ा है, जिसके कारण कोई भी जो विश्वास करता है, इसमें प्रेवश कर सकता है। यीशु कहता है कि "हर अच्छा पेड़ अच्छा फल लाता है" (वचन 17); इसके विपरीत, आसान- विश्वासवाद कहता है कि एक पेड़ अभी भी अच्छा हो सकता है और कुछ नहीं अपितु बुरे फल को ला सकता है। यीशु कहता है कि जो लोग "हे प्रभु, हे प्रभु" कहते हैं, वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं करेंगे (वचन 21-23); इसके विपरीत, आसान-विश्वासवाद सिखाता है कि "हे प्रभु, हे प्रभु" कहना पर्याप्त है।
प्रभुत्ववादी उद्धार सिखाता है कि विश्वास का सच्चा अंगीकार विश्वास के प्रमाण के ऊपर टिका हुआ होता है। यदि कोई व्यक्ति वास्तव में प्रभु के पीछे चल रहा है, तो वह परमेश्वर के निर्देशों का पालन करेगा। एक व्यक्ति जो स्वयं की इच्छा, न पश्चाताप किए हुए पाप में जीवन व्यतीत कर रहा है, स्पष्ट रूप से मसीह के पीछे चलने के लिए नहीं चुना गया है, क्योंकि मसीह हमें पाप से बाहर आने और धार्मिकता में जीवन व्यतीत करने के लिए बुलाता है। वास्तव में, बाइबल स्पष्ट रूप से सिखाती है कि मसीह में विश्वास करने के परिणाम परिवर्तित जीवन में होगा (2 कुरिन्थियों 5:17; गलतियों 5:22-23; याकूब 2:14-26)।
प्रभुत्ववादी उद्धार कर्मों-के-द्वारा-उद्धार आधारित धर्मसिद्धान्त नहीं है। प्रभुत्ववादी उद्धार की वकालत करने वाले यह कहने के लिए सावधान रहते हैं कि उद्धार केवल अनुग्रह से है, विश्वासियों को उनके विश्वास के द्वारा अच्छे कार्यों को उत्पन्न करने से पहले ही बचाया जाता है और यह कि मसीही विश्वासी पाप कर सकते हैं और करते हैं। यद्यपि, सच्चा उद्धार अनिवार्य रूप से एक परिवर्तित जीवन की ओर ले जाएगा। बचाया हुआ व्यक्ति अपने उद्धारकर्ता के प्रति समर्पित रहेगा। एक सच्चा मसीही विश्वासी न पश्चाताप किए हुए, अज्ञात पाप में रहने के लिए सहजता को महसूस नहीं करेगा।
यहाँ नौ शिक्षाएँ दी गई हैं, जो आसान-विश्वासवाद को प्रभुत्ववादी उद्धार से पृथक कर देती हैं:
1) पश्चाताप विश्वास के लिए एक सरल पर्यायवाची नहीं है। पवित्रशास्त्र सिखाता है कि पापियों को पश्चाताप के साथ विश्वास करना चाहिए (प्रेरितों के काम 2:38; 17:30; 20:21; 2 पतरस 3:9)। पश्चाताप पाप को अपनाने के विपरीत मन का परिवर्तन है और मसीह को अस्वीकार करने के विपरीत पाप का इन्कार करते हुए और मसीह को अपनाने के लिए मन का परिवर्तन है (प्रेरितों के काम 3:19; लूका 24:47), और यहाँ तक कि यह परमेश्वर का उपहार है (2 तीमुथियुस 2:25 )। वास्तविक पश्चाताप तब आता है, जब कोई व्यक्ति स्वयं को मसीह प्रभुत्व के अधीन कर देता है, यह और कुछ नहीं करता, अपितु व्यवहार में परिवर्तन को ले आता है (लूका 3:8; प्रेरितों के काम 26:18-20)।
2) एक मसीही विश्वासी एक नई सृष्टि है और केवल "विश्वास करना रोक नहीं कर सकता" है और उद्धार को खो नहीं सकता है। विश्वास ईश्वर का उपहार है (इफिसियों 2:1-5, 8), और वास्तविक विश्वास सदैव बना रहता है (फिलिप्पियों 1:6)। उद्धार पूर्ण रूप से परमेश्वर का काम है, न कि मनुष्य का। जो लोग मसीह को प्रभु मानते हुए विश्वास करते हैं, वे अपने स्वयं के प्रयासों को छोड़ बचाए जाते हैं (तीतुस 3:5)।
3) विश्वास की विषय वस्तु स्वयं मसीह है, कोई प्रतिज्ञा नहीं, एक प्रार्थना नहीं, या एक पंथ नहीं (यूहन्ना 3:16)। विश्वास में मसीह के लिए व्यक्तिगत समर्पण सम्मिलित होना चाहिए (2 कुरिन्थियों 5:15)। यह सुसमाचार की सच्चाई से आश्वस्त होने से भी कहीं बढ़कर है; यह इस संसार का एक त्याग है और एक स्वामी के पीछे चलना है। प्रभु यीशु ने कहा, "मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं; मैं उन्हें जानता हूँ, और वे मेरे पीछे पीछे चलती हैं" (यूहन्ना 10:27)।
4) सच्चा विश्वास सदैव एक परिवर्तित जीवन को उत्पन्न करता है (2 कुरिन्थियों 5:17)। आन्तरिक व्यक्ति पवित्र आत्मा के द्वारा परिवर्तित हो जाता है (गलतियों 2:20), और मसीही विश्वासी के पास नया स्वभाव होता है (रोमियों 6:6)। वास्तविक विश्वास करने वाले लोग — जो मसीह के प्रभुत्व के अधीन होते हैं — यीशु का अनुसरण करते हैं (यूहन्ना 10:27), वे अपने भाइयों से प्रेम करते हैं (1 यूहन्ना 3:14), परमेश्वर के आदेशों का पालन करते हैं (1 यूहन्ना 2:3; यूहन्ना 15:14), परमेश्वर की इच्छा को पूरा करते हैं (मत्ती 12:50), परमेश्वर के वचन में बने रहते हैं (यूहन्ना 8:31), परमेश्वर के वचन का पालन करते हैं (यूहन्ना 17:6), भले कामों को करते हैं (इफिसियों 2:10), और विश्वास में बने रहते हैं (कुलुस्सियों 1:21-23; इब्रानियों 3:14)। उद्धार यीशु को एक व्यक्ति की मूर्तियों के साथ जोड़ना नहीं है; यह यीशु के सर्वोच्च शासन के साथ मूर्तियों का पूरी तरह से विनाश करना है।
5) परमेश्वर की "ईश्वरीय सामर्थ्य ने सब कुछ जो जीवन और भक्ति से सम्बन्ध रखता है, हमें उसी की पहचान के द्वारा दिया है" (2 पतरस 1:3; की तुलना रोमियों 8:32 से करें)। उद्धार तब, स्वर्ग जाने के लिए केवल एक टिकट मात्र नहीं रह जाता है। यही वह साधन है, जिसके द्वारा हम इस जीवन में (व्यावहारिक रूप से) पवित्र होते हैं और जिसके द्वारा हम अनुग्रह में आगे बढ़ते हैं।
6) पवित्रशास्त्र सिखाता है कि यीशु सभों का प्रभु है। मसीह उसकी इच्छा के प्रति बिना किसी शर्त के आत्मसमर्पण की मांग करता है (रोमियों 6:17-18; 10:9-10)। जो लोग परमेश्वर की इच्छा के विद्रोह में रहते हैं, उनके पास अनन्त जीवन नहीं होता है, क्योंकि "परमेश्वर अभिमानियों का विरोध करता है, पर दीनों पर अनुग्रह करता है" (याकूब 4:6)।
7) जो लोग वास्तव में मसीह में विश्वास करते हैं, वे उससे प्रेम करेंगे (1 पतरस 1:8-9; रोमियों 8:28-30; 1 कुरिन्थियों 16:22)। और जिन्हें हम प्रेम करते हैं, उन्हें हम प्रसन्न करने की इच्छा रखते हैं (यूहन्ना 14:15, 23)।
8) पवित्रशास्त्र सिखाता है कि व्यवहार विश्वास के लिए एक महत्वपूर्ण जाँच है। आज्ञाकारिता वह प्रमाण है कि एक व्यक्ति का विश्वास वास्तविक है या नहीं (1 यूहन्ना 2:3)। यदि कोई व्यक्ति मसीह की आज्ञा का पालन करने के लिए तैयार नहीं होता है, तो वह प्रमाण प्रदान करता है कि उसका "विश्वास" केवल नाम मात्र का है (1 यूहन्ना 2: 4)। एक व्यक्ति यीशु को उद्धारकर्ता मानने का दावा कर सकता है और थोड़ी देर के लिए उसकी आज्ञा को मानने का नाटक कर सकता है, परन्तु यदि मन में कोई परिवर्तन नहीं होता है, तो उसका वास्तविक स्वभाव अन्ततः प्रकट हो ही जाएगा। यही यहूदा इस्करियोती की घटना में हुआ था।
9) वास्तविक विश्वासी ठोकर खा सकते हैं, परन्तु वे अपने विश्वास में दृढ़ रहेंगे (1 कुरिन्थियों 1:8)। शिमौन पतरस की घटना में ऐसा ही हुआ था। एक "विश्वासी" जो पूरी तरह से प्रभु से दूर हो जाता है, यह दिखाता है कि उसका कभी नया जन्म हुआ ही नहीं था (1 यूहन्ना 2:19)।
एक व्यक्ति जो मसीह में विश्वास करने से पाप से बचाया गया है, उसे पाप के जीवन मे नहीं बने रहने की इच्छा रखनी चाहिए (रोमियों 6:2)। नि:सन्देह, व्यक्ति और उसकी परिस्थितियों के आधार पर आत्मिक विकास शीघ्रता के साथ या धीरे-धीरे हो सकता है। और परिवर्तन पहले हर किसी के ऊपर स्पष्ट नहीं हो सकता है। अन्तत:, परमेश्वर ही जानता है कि उसकी भेड़ कौन है, और वह हममें से प्रत्येक को अपनी सही समय सारणी के अनुसार परिपक्व करेगा।
क्या एक मसीही विश्वासी होना सम्भव है और साथ ही आजीवन सांसारिकता में जीवन व्यतीत किया जाए, पाप के सुख का आनन्द लेते रहा जाए और कभी भी परमेश्वर को महिमा देने की इच्छा न हो, जिसे हम इसे संसार में लाए है? क्या एक पापी मसीह के प्रभुत्व को ठुकरा सकता है, तौभी उसे अपना उद्धारकर्ता होने का दावा कर सकता है? क्या कोई "पापियों की प्रार्थना" को कर सकता है और अपने जीवन को ऐसे व्यतीत कर सकता है, कि मानो जैसे कुछ हुआ ही नहीं है और तौभी स्वयं को "मसीही" विश्वासी कहलवा सकता है? प्रभुत्ववादी उद्धार कहता है कि "नहीं।" नपश्चाताप किए हुए पापियों को झूठी आशा न दें; अपितु, आइए हम परमेश्वर की पूरी सम्मति की घोषणा करें: "आपको नया लेना आवश्यक है" (यूहन्ना 3:7)।
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