प्रश्न
नए नियम की कहानी क्या है?
उत्तर
परमेश्वर के द्वारा भविष्यद्वक्ता मलाकी से बात करने के चार सौ वर्षों पश्चात्, परमेश्वर ने फिर से बात की। सन्देश यह था कि मलाकी 3:1 की भविष्यद्वाणी पूरी हो गई थी, कि एक भविष्यद्वक्ता को प्रभु के लिए मार्ग तैयार करना था। मसीह अपने मार्ग पर चला आ रहा था।
उस भविष्यद्वक्ता को यूहन्ना नाम दिया गया था। मसीह को यीशु का नाम दिया गया था, जिसने मरियम नाम की एक कुँवारी से जन्म लिया था। यीशु यहूदी धर्म का पालन करने वाले एक यहूदी के रूप में बड़ा हुआ। जब वह लगभग तीस वर्ष का था, उसने इस्राएल के प्रति अपनी सार्वजनिक सेवा आरम्भ की। यूहन्ना प्रतिज्ञा किए हुए मसीह के राज्य का प्रचार कर रहा था और उन लोगों को बपतिस्मा दे रहा था, जिन्होंने उसके सन्देश के ऊपर विश्वास किया और अपने पापों से पश्चाताप किया। जब यीशु उसके पास बपतिस्मा लेने आया, तब परमेश्वर ने ऊँची आवाज में बोला और पवित्र आत्मा यीशु के ऊपर दृश्य रूप में उतर आया, जिससे उसकी पहचान प्रतिज्ञा किए हुए मसीह के रूप में हुई। उस समय से, यूहन्ना की सेवा समाप्त हो गई, जिसने मसीह को संसार में परिचय देने के अपने उद्देश्य को पूरा कर लिया था (मत्ती 3)।
यीशु ने बारह शिष्यों को जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से बुलाया, उन्हें सेवा के लिए अधिकार दिया, और उन्हें प्रशिक्षण देना आरम्भ किया। जैसे-जैसे यीशु ने यात्रा की और प्रचार किया, उसने बीमारों को चंगा किया और कई अन्य आश्चर्यकर्मों को किया, जो उसके सन्देश को प्रमाणित करते थे। यीशु की आरम्भिक सेवकाई में बहुत अधिक विकास को देखा जाता है। विशाल भीड़ उसके आश्चर्यकर्मों से अचम्भित हुई और उसकी शिक्षा के ऊपर चकित रह गई और जहाँ कहीं भी वह गया उसके पीछे हो ली (लूका 9:1; मत्ती 19:2)।
यद्यपि, यीशु के द्वारा हर कोई सम्मोहित था। यहूदी समुदाय के राजनीतिक और धार्मिक अगुवों ने यीशु की शिक्षा से ठोकर खाई कि उसके नियम और परम्पराएँ उद्धार के मार्ग के लिए पर्याप्त नहीं थीं। उन्होंने यीशु का कई बार सामना किया और यीशु ने सार्वजनिक रूप से उन लोगों के बारे में बताया जो पाखण्डी के रूप में थे। फरीसियों ने यीशु के आश्चर्यकर्मों को देखा परन्तु उन्होंने परमेश्वर को महिमा देने की अपेक्षा उस पर शैतान के काम को करने के लिए दोष लगा दिया (मत्ती 12:24; 15:3; मत्ती 23)।
यीशु के पीछे चलने वाली भीड़ बढ़ती ही चली गई, क्योंकि यह स्पष्ट हो गया था कि यीशु के पास स्वयं को राजा बनाने या रोम के सताने वालों को उखाड़ फेंकने की कोई मंशा नहीं थी। यूहन्ना को गिरफ्तार कर लिया गया और अन्ततः जेल में ही उसकी हत्या कर दी गई। यीशु ने अपने बारह शिष्यों पर अधिक ध्यान केन्द्रित करना आरम्भ किया, जिनमें से अधिकांश ने स्वीकार किया कि वह परमेश्वर का पुत्र था। केवल एक ही ने विश्वास नहीं किया; उसका नाम यहूदा इस्करियोती था और उसने सक्रिय रूप से अधिकारियों के साथ यीशु को धोखा देने के एक तरीके की खोज करनी आरम्भ कर दी थी (यूहन्ना 6:66; मत्ती 16:16; 26:16)।
यरूशलेम की ओर अपनी अन्तिम यात्रा में यीशु ने अपने शिष्यों के साथ फसह मनाया। उस रात, प्रार्थना के समय, यहूदा इस्करियोती यीशु के पास अगुवाई देता हुआ एक सशस्त्र भीड़ को ले आया। यीशु को गिरफ्तार कर लिया गया और उसे नकली जाँचों की एक श्रृंखला में से जाने दिया गया। रोमी राज्यपाल के द्वारा उसे क्रूस पर चढ़ाने के द्वारा मृत्यु दण्ड के लिए दोषी ठहरा दिया गया, जिसने, इतने पर भी यह स्वीकार किया कि यीशु एक निर्दोष व्यक्ति था। यीशु को क्रूस पर चढ़ाया गया था। उसकी मृत्यु के समय, एक बड़ा भूकम्प आया था। यीशु के मृत शरीर को क्रूस पर से उतारा गया और शीघ्रता के साथ कब्र में रख दिया गया (लूका 22:14-23, 39-53; मरकुस 15:15, 25; मत्ती 27:51; यूहन्ना 19:42)।
यीशु की मृत्यु के तीसरे दिन यीशु की कब्र खाली पाई गई और स्वर्गदूतों ने घोषणा की कि वह फिर से जी उठा है। तब यीशु अपने शिष्यों को शरीर सहित दिखाई दिया और अगले 40 दिनों में उनके साथ समय व्यतीत किया। प्रगटीकरण के समय के अन्त में यीशु ने प्रेरितों को आदेश दिया और स्वर्ग में ऊपर चढ़ गया, जब सभी देख रहे थे (लूका 24:6, 24; यूहन्ना 21:1, 14; प्रेरितों के काम 1:3-9)।
यीशु के स्वर्गारोहण के दस दिन पश्चात्, यरूशलेम में लगभग 120 शिष्य इकट्ठे हुए जो प्रार्थना कर रहे थे और पवित्र आत्मा की प्रतीक्षा कर रहे थे, जिसके भेजने की प्रतिज्ञा यीशु ने की थी। पिन्तेकुस्त के दिन पवित्र आत्मा ने शिष्यों को भर दिया, जिससे उन्हें उन भाषाओं में बोलने की क्षमता दी गई, जिन्हें उन्होंने कभी नहीं सीखा था। पतरस और अन्यों ने यरूशलेम की सड़कों पर प्रचार किया और 3,000 लोगों ने उनके सन्देश पर विश्वास किया कि प्रभु यीशु की मृत्यु हुई है और फिर से जी उठा था। जो लोग विश्वास करते थे वे यीशु के नाम पर बपतिस्मा लेते थे। कलीसिया का आरम्भ हो गया था (प्रेरितों के काम 2)।
यरूशलेम की कलीसिया बढ़ती जा रहा थी, क्योंकि प्रेरितों ने आश्चर्यकर्मों को किया और बड़ी सामर्थ्य के साथ वचन की शिक्षा दी। यद्यपि, नए विश्वासियों को शीघ्र ही शाऊल नाम के एक युवा फरीसी के नेतृत्व में सताव का सामना करना पड़ा। परिणामस्वरूप, बहुत से विश्वासियों को यरूशलेम छोड़ना पड़ा और जैसे ही वे एक स्थान दे दूसरे स्थान पर गए, उन्होंने यीशु के सुसमाचार को अन्य शहरों में फैला दिया। विश्वासियों की आराधना सभाएँ अन्य जातियों में होने लगी (प्रेरितों के काम 2:43; 8:1, 4)।
सुसमाचार प्राप्त करने वाले स्थानों में से एक सामरिया था। यरूशलेम की कलीसिया ने पतरस और यूहन्ना को सामरिया एक कलीसिया के बारे में सुनाई गई रिपोर्टों को सत्यापित करने के लिए भेजा। जब पतरस और यूहन्ना वहाँ पहुँचे, तो उन्होंने सामरियों के ऊपर पवित्र आत्मा के आने के वैसे ही तरीके से देखा जैसा वह उनके ऊपर आया था। बिना किसी सन्देह के कलीसिया सामरिया में फैल गई। इसके तुरन्त पश्चात्, पतरस ने पवित्र आत्मा को रोमी सूबेदार और उसके घराने के लोगों पर उतरते हुए देखा; इस प्रकार, कलीसिया गैर-यहूदी संसार में भी फैल रही थी (प्रेरितों 8:14-17; 10:27-48)।
बारह शिष्यों में से एक याकूब, यरूशलेम में शहीद हुआ था। शाऊल ने दमिश्क में मसीहियों के विरूद्ध घृणा फैलाने की योजना बनाई थी, परन्तु अपने मार्ग में यीशु उसके सामने एक दर्शन में प्रगट हुआ। कलीसिया को भूतपूर्व में सताने वाला अब मसीह के प्रभावशाली प्रचारक में परिवर्तित हो गया था। कुछ वर्षों पश्चात्, शाऊल/ पौलुस अन्ताकिया की कलीसिया में एक शिक्षक बन गया। वहीं, उसे और बरनबास को पवित्र आत्मा के द्वारा संसार के सबसे पहले "विदेशी मिशनरी" बनने के लिए चुना गया था और वे साइप्रस और एशिया माइनर में सुसमाचार की सेवा के लिए चले गए। पौलुस और बरनबास को अपनी यात्रा में बहुत अधिक सताव और कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, परन्तु कई लोगों को बचाया गया — जिसमें तीमुथियुस नामक एक युवक भी सम्मिलित है और कलीसियाएँ स्थापित की गई थीं (प्रेरितों के काम 9:1-22; 12:1-2; 13-14)।
पीछे यरूशलेम में, कलीसिया में गैर-यहूदियों की स्वीकृति पर एक प्रश्न उठ खड़ा हुआ। क्या गैर-यहूदी मसीही विश्वासियों (पूर्व में मूर्तिपूजकों को) को यहूदी मसीही विश्वासियों के जैसे बराबरी का स्थान दिया जाना चाहिए था, जिन्होंने अभी तक व्यवस्था का पालन अपने पूरे जीवन में किया था? अधिक विशेष रूप से कहना, क्या बचने के लिए यहूदी विश्वासियों का खतना किया जाना चाहिए? इस प्रश्न पर विचार करने के लिए एक परिषद का आयोजन यरूशलेम में किया गया। पतरस और पौलुस दोनों ने इस बात की गवाही दी कि कैसे परमेश्वर ने गैर-यहूदी विश्वासियों के खतने के बिना होने पर भी यहूदी विश्वासियों के जैसे ही पवित्र आत्मा उण्डेल दिया था। परिषद का दृढ़ संकल्प यह था कि उद्धार विश्वास के माध्यम से अनुग्रह के द्वारा होता है और उद्धार के लिए खतना आवश्यक नहीं था (प्रेरितों 15:1-31)।
पौलुस ने सीलास के साथ इस समय एक और मिशनरी यात्रा की। रास्ते में, तीमुथियुस उनके साथ जुड़ गया, ऐसा ही लूका नाम के एक डॉक्टर ने भी किया। पवित्र आत्मा के द्वारा आदेश दिए जाने पर, पौलुस और उसके समूह ने एशिया माइनर को छोड़ दिया और यूनान की ओर यात्रा की, जहाँ रास्ते में फिलिप्पी, थिस्सलुनीका, कुरिन्थ, इफिसुस और अन्य शहरों में और भी कलीसियाएँ स्थापित की गईं। बाद में, पौलुस तीसरी मिशनरी यात्रा के ऊपर चला गया। सेवकाई की उसकी पद्धति लगभग सदैव एक जैसी ही रही — सबसे पहले शहर के यहूदी आराधनालय में उपदेश देना, जो प्रत्येक समुदाय में यहूदियों को सुसमाचार प्रस्तुत करना था। सामान्य रूप से, आरधनालयों में उसे अस्वीकृत कर दिया जाता था और तब वह इसकी अपेक्षा अन्यजातियों को सन्देश देने लगता था (प्रेरितों के काम 15:40-21:17)।
मित्रों के द्वारा चेतावनियों को दिए जाने के पश्चात् भी, पौलुस ने यरूशलेम की ओर यात्रा की। वहाँ, उसे मारने की मंशा से एक भीड़ ने उसके ऊपर आक्रमण कर दिया। उसे रोमी सूबेदार के द्वारा बचाया गया था और बैरकों में सुरक्षा से भरी हुई कैद में रखा गया। पौलुस का मुकद्दमा यरूशलेम में यहूदी महासभा के सामने चल रहा था, परन्तु न्यायालय में अराजकता फैल गई और पौलुस को रोमी न्यायाधीश के सामने मुकदमा चलाने के लिए कैसरिया ले जाया गया। कैसरिया में कई वर्षों के पश्चात्, पौलुस ने कैसर से अपील की, जैसा कि रोमन कानून के अधीन उसे अधिकार प्राप्त था (प्रेरितों के काम 21:12, 27-36; प्रेरितों के काम 23:1-25:12)।
पौलुस को जहाज पर एक कैदी के रूप में रोम ले जाया गया और लूका उसके साथ था। मार्ग में, जब एक गम्भीर तूफान ने जहाज़ को तोड़ दिया, परन्तु जहाज के प्रत्येक व्यक्ति ने स्वयं को माल्टा द्वीप पर सुरक्षित पहुँचा लिया। वहाँ, पौलुस ने ऐसे आश्चर्यकर्म किए कि द्वीप के राज्यपाल का ध्यान उसकी ओर आकर्षित हो गया। एक बार फिर से, सुसमाचार फैल गया (प्रेरितों के काम 27:1-28:10)।
जब वह रोम में पहुँचे, तो पौलुस को घर में कैद कर लिया गया। उसके मित्र उससे मुलाकात कर सकते थे और उसे उन्हें शिक्षा देने की स्वतन्त्रता दी गई थी। रोमी रक्षकों में से कुछ का मन परिवर्तन हो गया और यहाँ तक कि कैसर के ही घराने में से कुछ ने यीशु में विश्वास किया (प्रेरितों के काम 28:16, 30-31; फिलिप्पियों 4:22)।
जबकि पौलुस को रोम में बन्दीगृह में रखा गया था, परमेश्वर के काम भूमध्य सागरीय संसार के आसपास चलता रहा। तीमुथियुस ने इफिसुस में सेवा की; तीतुस ने क्रेते में काम की देखरेख की; अपुल्लोस ने कुरिन्थ में सेवा की; सम्भवतः, पतरस रोम में गया था (1 तीमुथियुस 1:3; तीतुस 1:5; प्रेरितों 19:1; 1 पतरस 5:13)।
अधिकांश प्रेरितों को मसीह में उनके विश्वास के लिए शहीद कर दिया गया। अन्तिम प्रेरित यूहन्ना था, जो एक बूढ़े व्यक्ति के रूप में, पतमुस द्वीप से निर्वासित किया गया था। वहाँ, उसने प्रभु यीशु के कलीसियाओं के लिए दिए गए सन्देशों और अन्तिम समय की दर्शन को प्राप्त किया, जिसे उसने प्रकाशितवाक्य की पुस्तक के रूप में लिपिबद्ध किया (प्रकाशितवाक्य 1:9, 4, 19)।
English
नए नियम की कहानी क्या है?