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प्रश्न

पवित्र शास्त्र की पर्याप्तता का सिद्धान्त क्या है? इसका क्या अर्थ है कि बाइबल पर्याप्त है?

उत्तर


पवित्रशास्त्र की पर्याप्तता का धर्मसिद्धान्त मसीही विश्‍वास का एक मूल सिद्धान्त है। बाइबल की पर्याप्तता का अर्थ यह है कि हमें विश्‍वास और सेवा के जीवन के लिए तैयार करने के लिए बाइबल हमारे लिए पर्याप्त है। यह उसके पुत्र यीशु मसीह के माध्यम से अपने और मानवता के बीच टूटे सम्बन्ध को पुनर्स्थापित अर्थात् बहाल करने के लिए परमेश्‍वर की इच्छा का स्पष्ट प्रस्तुतिकरण है। बाइबल हमें विश्‍वास, चुने जाने और यीशु की क्रूस के ऊपर मृत्यु और पुनरुत्थान के द्वारा उद्धार की शिक्षा देती है। इस शुभ सन्देश को समझने के लिए कोई भी अन्य लेखनकार्य आवश्यक नहीं है, न ही हमें विश्‍वास के जीवन के लिए तैयार करने के लिए किसी अन्य लेखन कार्य की आवश्यकता है।

"पवित्र शास्त्र" कहने से अर्थ पुराने और नए दोनों नियमों से है। प्रेरित पौलुस ने यह घोषणा की है कि पवित्र शास्त्र "मसीह पर विश्‍वास करने से उद्धार प्राप्त करने के लिए बुद्धिमान बना सकता है। सम्पूर्ण पवित्र शास्त्र परमेश्‍वर की प्रेरणा से रचा गया है और उपदेश, और समझाने और सुधारने और धर्म की शिक्षा के लिये लाभदायक है, ताकि परमेश्‍वर का जन सिद्ध बने, और हर एक भले काम के लिए तत्पर हो जाए (2 तीमुथियुस 3:15-17)। यदि पवित्रशास्त्र "परमेश्‍वर की प्रेरणा" से रचा गया है, तब तो यह मनुष्य की प्रेरणा से नहीं है। यद्यपि, इसे मनुष्यों के द्वारा लिखा गया है, जो "भक्त जन पवित्र आत्मा के द्वारा उभारे जाकर परमेश्‍वर की ओर से बोलते थे" (2 पतरस 1:21)। कोई भी मनुष्य-निर्मित लेखनकार्य हमें भले कार्यों के लिए तैयार करने के लिए पर्याप्त नहीं है; केवल परमेश्‍वर का वचन ही यह कार्य कर सकता है। इसके अतिरिक्त, यदि पवित्रशास्त्र हमें पूरी तरह से तैयार करने के लिए पर्याप्त है, तब तो हमें और किसी भी लेखनकार्य की अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है।

कुलुस्सियों 2 उन खतरों की चर्चा करता है, जिसे एक कलीसिया उस समय सामना कर सकती है, जब पवित्रशास्त्र की पर्याप्तता को चुनौती दी जाती है या जब पवित्रशास्त्र की मिलावट गैर-बाइबल आधारित लेखनकार्यों के साथ कर दी जाती है। पौलुस ने कुलुस्से की कलीसिया को चेतावनी दी थी, "चौकस रहो कि कोई तुम्हें उस तत्व-ज्ञान और व्यर्थ धोखे के द्वारा अपना अहेर न बना ले, जो मनुष्यों की परम्पराओं और संसार की आदि शिक्षा के अनुसार तो है, पर मसीह के अनुसार नहीं" (कुलुस्सियों 2:8)। यहूदा तो और भी अधिक सीधे शब्दों में कहता है: "हे प्रियो, जब मैं तुम्हें उस उद्धार के विषय में लिखने में अत्यन्त परिश्रम से प्रयत्न कर रहा था, तो मैं ने तुम्हें समझाना आवश्यक जाना कि उस विश्‍वास के लिये पूरा यत्न करो जो पवित्र लोगों को एक ही बार सौंपा गया था" (यहूदा 1:3)। "एक ही बार" वाक्यांश के ऊपर ध्यान दें। यह स्पष्ट करता है कि कोई भी अन्य लेख नहीं, चाहे एक पास्टर, धर्मवैज्ञानिक कितने भी अधिक भक्त क्यों न हों या चाहे वे कितनी भी अधिक भक्तिपूर्ण साम्प्रदायिक कलीसिया से ही क्यों न आते हों, को पूर्ण तुल्यता के साथ या परमेश्‍वर के वचन की पूर्णता के साथ ही देखा जाना चाहिए। बाइबल में वे सभी बातें निहित हैं जो एक विश्‍वासी को परमेश्‍वर के चरित्र, मनुष्य के चरित्र और पाप, स्वर्ग, नरक और यीशु मसीह के द्वारा उद्धार के धर्मसिद्धान्त को समझने के लिए आवश्यक हैं।

कदाचित् बाइबल की पर्याप्तता के विषय के ऊपर सबसे दृढ़ वचन भजन संहिता की पुस्तक में से आता है। भजन संहिता 19:7-14 में, दाऊद परमेश्‍वर के वचन में आनन्द यह कहते हुए मनाता है, कि यह सिद्ध, सही, विश्‍वासयोग्य, उचित, उज्ज्वल, प्रबुद्ध, निश्चित और पूरी तरह से धर्मी है। क्योंकि बाइबल "सिद्ध" है, इसलिए कोई भी अन्य लेखनकार्य आवश्यक नहीं है।

आज पवित्रशास्त्र की पर्याप्तता के धर्मसिद्धान्त पर आक्रमण किया जा रहा है और दु:ख की बात यह है कि यह आक्रमण अक्सर हमारी स्वयं की कलीसियाओं से ही आता है। सांसारिक प्रबन्धन की तकनीकें, भीड़ को एकत्र करने के तरीके, मनोरंजन, अतिरिक्त-बाइबल आधारित प्रकाशन, रहस्यवाद और मनोवैज्ञानिक परामर्श सभी यही घोषणा करते हैं कि बाइबल और इसकी अवधारणाएँ मसीही विश्‍वास के लिए पर्याप्त नहीं है। परन्तु यीशु ने कहा है, "मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं और मैं उन्हें जानता हूँ और वे मेरे पीछे चलती हैं" (यूहन्ना 10:27)। हमें केवल उसकी आवाज मात्र ही सुनने की आवश्यकता है, और पवित्रशास्त्र उसकी पूर्ण और पर्याप्त रूप से आवाज है।

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पवित्र शास्त्र की पर्याप्तता का सिद्धान्त क्या है? इसका क्या अर्थ है कि बाइबल पर्याप्त है?
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