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प्रश्न

ईश्‍वरैक्यवादी सार्वभौमिकता क्या है?

उत्तर


यूनिटिरीअन यूनिवर्सलिज़्म अर्थात् ईश्‍वरैक्यवादी सार्वभौमिकता बहुत छोटा, तथापि अभी तक का प्रभावशाली, धार्मिक समूह है। सम्बन्धात्मकवाद, सहिष्णुता, और वैकल्पिक जीवन शैली ईश्वरैक्यवादी सार्वभौमिकता के द्वारा उपयोग किए जाने वाले चर्चा के शब्द हैं।

ईश्वरैक्यवादी सार्वभौमिकतावाद अपने नाम ट्रिनिटी अर्थात् त्रिएकत्व के सिद्धान्त और इसकी मान्यता से इन्कार करते हुए पाता है कि सभी मनुष्यों को उद्धार प्राप्त होता है। सार्वभौमिकतावादियों के अनुसार, मात्र यह विचार की कोई नरक में जा सकता है, एक प्रेमी परमेश्वर के चरित्र के साथ संगत नहीं है। इसकी नींव सोलहवीं शताब्दी में पाई जाती है, जब पुनर्जागरण के समय ईश्वरैक्यवाद मान्यताएँ लोकप्रिय हो गई थीं। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अमेरिका में तर्क के युग के समय ईश्वरैक्यवादी विचारों और सार्वभौमिकतावादी विचारों का आपस में मिश्रण कर दिया गया। उस समय के बौद्धिक अभिजात वर्ग ने बाइबल की पूर्ण रूप से नैतिक भ्रष्टता और शाश्वत विनाश की शिक्षाओं में विश्वास करने से इन्कार कर दिया, अपितु इसके स्थान पर किसी प्रेमी परमेश्वर के विचार को अपना लिया जो कभी किसी को पीड़ा नहीं देगा।

ईश्वरैक्यवादी सार्वभौमिकतावाद के अनुयायी मुख्य रूप से अपने अनुभवों पर आधारित होते हैं और किसी भी धार्मिक पद्धति के प्रति प्रतिबद्ध नहीं हैं। उनका मानना है कि एक व्यक्ति को यह निर्धारित करने का अधिकार है कि उसे क्या विश्वास करना है, और क्या नहीं, और दूसरों को इस अधिकार का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। परिणामस्वरूप, एक विश्वासी उदारवादी मसीहियत की ओर, जबकि दूसरा नई युगवादी अध्यात्म की ओर झुकाव रख सकता है। बाइबल आधारित मसीहियत को छोड़कर - किसी भी बात के लिए सहिष्णुता से परे कोई भी वास्तविक धर्मसिद्धान्त नहीं है। ईश्वरैक्यवाद आधारित सार्वभौमिकतावादी बाइबल को मात्र एक काव्य साहित्य, मिथक, और नैतिक शिक्षा के रूप में मानते हैं, जो कि पूरी तरह से मानवीय पुस्तक है और उसे वास्तव में परमेश्वर के वचन के रूप में नहीं देखते हैं। वे बाइबल आधारित त्रिएक परमेश्वर के चित्रण को अस्वीकार कर देते हैं, और इस तरह प्रत्येक व्यक्ति को परमेश्वर के प्रति को उसकी स्वयं की कल्पना पर छोड़ देते हैं।

ईश्वरैक्यवाद आधारित सार्वभौमिकतावादियों के लिए, यीशु एक अच्छा नैतिक शिक्षक था, परन्तु इससे बढ़कर और कुछ भी नहीं। उसे ईश्वरीय नहीं माना जाता है, और उसके साथ जुड़े प्रत्येक आश्चर्यकर्म को मानवीय तर्कों की सीमा में नहीं आने के कारण अस्वीकृत कर दिया जाता है। बाइबल में वर्णित यीशु के अधिकांश कथनों को लेखकों के द्वारा लेखन की सजावट के रूप में माना जाता है। सार्वभौमिक मान्यताओं में: यीशु मानव जाति को पाप से बचाने के लिए नहीं मरा, क्योंकि मनुष्य पाप से पतित होने वाला प्राणी नहीं है; इसलिए जोर को मनुष्य में पाई जाने वाली अच्छाई की क्षमता पर दिया गया है; पाप पूरी तरह से सम्बन्धात्मक है, और इस शब्द को कदाचित् ही कभी उपयोग किया जाता है; मनुष्य व्यक्तिगत सुधार के माध्यम से स्वयं को बचाता है, उद्धार पूरी तरह से सांसारिक अनुभव है, यह अपने चारों के संसार के प्रति "सचेतन" होना है। यह बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि मृत्यु अन्त है। अधिकांश ईश्वरैक्यवाद आधारित सार्वभौमिकतावादी बाद के जीवन के अस्तित्व के प्रति इन्कार करते हैं, इसलिए उनका मानना है कि जो कुछ हमारे पास पृथ्वी पर है, हम इसे ही प्राप्त करेंगे।

दूसरी ओर, बाइबल इन झूठों को स्वीकार करने से इन्कार कर देती है। यीशु उस मनुष्य को बचाता है, जो अदन की वाटिका में पाप की अवस्था में था और पाप के कारण परमेश्वर से भिन्न हो गया था (यूहन्ना 10:15; रोमियों 3:24-25; 5:8; 1 पतरस 2:24)। मनुष्य भला नहीं है, परन्तु पापी और हताशा होते हुए खोया हुआ है। यह क्रूस पर मसीह का बहाया हुआ लहू, और परमेश्वर के अनुग्रह और विश्वास के माध्यम से है कि मनुष्य का मेलमिलाप एक पवित्र, पारलौकिक परमेश्वर के साथ हो सकता है (उत्पत्ति 2:16-17; 3:1-19; यूहन्ना 3:36; रोमियों 3:23; 1 कुरिन्थियों 2:14; इफिसियों 2:1-10; 1 तीमुथियुस 2:13-14; 1 यूहन्ना 1:8)।

ईश्वरैक्यवाद आधारित सार्वभौमिकता में बाइबल के मसीहियत के साथ कुछ भी सामान्य नहीं पाया जाता है। यह एक झूठा सुसमाचार है, इसकी शिक्षाएँ बाइबल के विपरीत हैं, और इसके सदस्य पारम्परिक, बाइबल आधारित मसीही मान्यताओं का दृढ़ता से (भेदभाव से मुक्त होने या किसी भी तरह के पूर्वाग्रह से मुक्त होने का दावा करते हुए) विरोध करते हैं। बाइबल स्पष्ट रूप से अपनी शिक्षाओं के सभी मुख्य बिन्दुओं में ईश्वरैक्यवाद आधारित सार्वभौमिकता को अस्वीकृत कर देती है।

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