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प्रश्न

एक व्यक्ति के रूप में यीशु कैसा था?

उत्तर


यद्यपि उसके पास "न तो कोई सुन्दरता थी कि हम उसे देखते..." (यशायाह 53:2), यह यीशु का व्यक्तित्व था जिसने लोगों को उसके प्रति आकर्षित किया। वह एक महान् चरित्र वाला व्यक्ति था।

यीशु के पास एक तरस खाने वाला स्वभाव था। उसे भीड़ के ऊपर दया आती थी "क्योंकि वे उन भेड़ों के समान जिनका कोई रखवाला न हो, व्याकुल और भटके हुए से थे" (मत्ती 9:36)। उनके प्रति उसकी दया के कारण, उसने उनकी बीमारियों को चँगा किया (मत्ती 14:14; 20:34), और उनकी भूख के कारण, उसने कम से कम दो अवसरों पर बड़ी भीड़ को खाना खिलाने के लिए पर्याप्त भोजन बनाया (मत्ती 14:13-21; 15:29-39)।

यीशु गम्भीर और केन्द्रित था। उसके जीवन का उद्देश्य सेवकाई थी और उसका ध्यान इससे इसके बोझ और समय की कमी को जानते हुए भी कभी नहीं भटका। उसका व्यवहार सेवक वाला था। वह इसलिए नहीं आया था कि "उसकी सेवा टहल की जाए, पर इसलिये आया कि आप सेवा टहल करे" (मरकुस 10:45)। दया और नि:स्वार्थ उसके व्यक्तित्व के गुण थे।

जब वह पृथ्वी पर आया और उसके बाद क्रूस पर चढ़ा, तो यीशु अपने पिता की इच्छा के प्रति अधीन रहा था। वह जानता था कि क्रूस पर मरना ही दण्ड का एकमात्र भुगतान था, जिसे उसका पिता हमारे उद्धार के लिए स्वीकार करेगा। उसने यहूदा इस्करियोती द्वारा उसके प्रति विश्वासघात किए जाने वाली रात यह प्रार्थना की, "हे मेरे पिता, यदि हो सके तो यह कटोरा मुझ से टल जाए, तौभी जैसा मैं चाहता हूँ वैसा नहीं, परन्तु जैसा तू चाहता है वैसा ही हो" (मत्ती 26:39) वह मरियम और यूसुफ के अधीन भी एक विनम्र पुत्र की तरह रहा। वह एक सामान्य (पापी) घर में पला-बढ़ा, तौभी, यीशु "अपने माता-पिता का आज्ञाकारी था" (लूका 2:51)। वह पिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारी रहा। "पुत्र होने पर भी उसने दु:ख उठा-उठाकर आज्ञा माननी सीखी" (इब्रानियों 5:8)। "क्योंकि हमारा ऐसा महायाजक नहीं जो हमारी निर्बलताओं में हमारे साथ दु:खी न हो सके; वरन् वह सब बातों में हमारे समान परखा तो गया — तौभी निष्पाप निकला" (इब्रानियों 4:15)।

यीशु के पास दया और क्षमा वाला मन है। क्रूस पर, उसने ऐसी प्रार्थना की, "हे पिता, इन्हें क्षमा करें, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं" (लूका 23:34)। यीशु अपने सम्बन्धों में प्रेमी था। उदाहरण के लिए, यूहन्ना 11:5 कहता है कि, "यीशु मार्था और उसकी बहिन और लाज़र से प्रेम रखता था" (यूहन्ना 11:5)। यूहन्ना स्वयं को उस शिष्य के रूप में सन्दर्भित किया "जिस से यीशु प्रेम करता था" (यूहन्ना 13:23)।

यीशु की ख्याति भला और देखभाल करने वाले की थी। उसने अक्सर इसलिए लोगों को चँगा किया ताकि लोगों को पता चल सके कि वह कौन था। सचमुच वह उन सभी आश्चर्यकर्मों के द्वारा जीवित परमेश्वर का पुत्र प्रमाणित हुआ, जो उसके चारों ओर के लोगों के दु:खों के प्रति उसकी चिन्ता को दिखा रहे थे।

यीशु ईमानदार और सच्चा था। उसने कभी अपने स्वयं के वचन का उल्लंघन नहीं किया। वह जहाँ कहीं भी गया उसने सच ही बोला। वह ऐसा जीवन जीता था जिसका हम स्पष्ट रूप से पालन कर सकते हैं। यीशु ने कहा, "मार्ग, सत्य और जीवन मैं हूँ" (यूहन्ना 14:6)। ठीक उसी समय, वह शान्त स्वभाव का था। उसने अपने लिए कभी किसी से विवाद नहीं किया, न ही लोगों के मनों में अपने लिए स्थान बनाने के लिए घुसने का प्रयास किया।

यीशु अपने अनुयायियों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध में था। उसने उनके साथ गुणवत्ता से भरा हुआ और पूरा समय व्यतीत किया। वह उनकी संगति की इच्छा करता था, उसने उन्हें शिक्षा दी, और उन्हें इस बात पर ध्यान केन्द्रित करने में सहायता की कि शाश्वत क्या था। वह अपने स्वर्गीय पिता के साथ भी घनिष्ठ सम्बन्ध में था। वह उस से नियमित प्रार्थना करता था, उसकी सुनता था, उसकी आज्ञा पालन करता था और उसने परमेश्वर की प्रतिष्ठा की चिन्ता की। जब यीशु ने उन व्यापारियों को देखा जो मन्दिर में आने वाले उपासकों से गलत तरीके से लाभ प्राप्त कर रहे थे, तो उसने उन्हें बाहर निकाल दिया। उसने कहा, "लिखा है, 'मेरा घर प्रार्थना का घर होगा, परन्तु तुम ने उसे डाकुओं की खोह बना दिया है'" (लूका 19:46)। यीशु एक साहसी परन्तु नम्र अगुवा था। वह जहाँ कहीं गया (जब तक कि उसका अनिवार्य रूप से रूकना सम्भव न हुआ), लोगों ने उसका अनुसरण किया, लोग उसकी शिक्षा को सुनने के लिए उत्सुक थे। लोग उस अधिकार से अचम्भित थे, जिसके द्वारा यीशु उनसे बात करता था (मरकुस 1:27-28; मत्ती 7:28-29)।

यीशु हमारी कमजोरियों को जानते और समझते हुए, धैर्यवान था। सुसमाचारों में कई बार, यीशु ने हमारे अविश्वास से भरे हुए उकसावों के सामने अपने धीरज को प्रकट किया है (मत्ती 8:26; मरकुस 9:19; यूहन्ना 14:9; की तुलना 2 पतरस 3:9 के साथ करें)।

सभी विश्वासियों को पवित्र आत्मा की सामर्थ्य के माध्यम से यीशु के चरित्र के गुणों का अनुकरण करने की इच्छा होनी चाहिए। जो बातें लोगों को यीशु को लोगों की ओर खींच कर लाई थीं, वही बातें हैं, जो लोगों को हमारे पास खींचती हैं। हमें यह जानने और समझने के लिए परमेश्वर के वचन (बाइबल) को पढ़ने की आवश्यकता है कि परमेश्वर कौन है और हमारे लिए उसकी इच्छा क्या है। हमें प्रभु की महिमा के लिए (1 कुरिन्थियों 10:31), संसार में नमक और ज्योति के रूप में रहते हुए और दूसरों को यीशु और उसके उद्धार के अद्भुत सत्य की ओर इंगित करने के लिए सब कुछ करना चाहिए (मत्ती 5:13–16; 28:18–20)।

फिलिप्पियों 2:1-11 इस बात के ऊपर एक सहायतापूर्ण सारांश है कि यीशु कैसा था और हमें उसका कैसे अनुकरण करना चाहिए:

"अत: यदि मसीह में कुछ शान्ति, और प्रेम से ढाढ़स, और आत्मा की सहभागिता, और कुछ करुणा और दया है, तो मेरा यह आनन्द पूरा करो कि एक मन रहो, और एक ही प्रेम, एक ही चित्त, और एक ही मनसा रखो। विरोध या झूठी बड़ाई के लिये कुछ न करो, पर दीनता से एक दूसरे को अपने से अच्छा समझो। हर एक अपने ही हित की नहीं, वरन् दूसरों के हित की भी चिन्ता करे। जैसा मसीह यीशु का स्वभाव था वैसा ही तुम्हारा भी स्वभाव हो:

जिसने परमेश्‍वर के स्वरूप में होकर भी
   परमेश्‍वर के तुल्य होने को अपने वश में रखने की वस्तु न समझा।
वरन् अपने आप को ऐसा शून्य कर दिया,
   और दास का स्वरूप धारण किया, और मनुष्य की समानता में हो गया।
और मनुष्य के रूप में प्रगट होकर अपने
   आप को दीन किया, और यहाँ तक आज्ञाकारी रहा कि मृत्यु, हाँ, क्रूस की मृत्यु भी सह ली।
इस कारण परमेश्‍वर ने उसको अति महान्
   भी किया, और उसको वह नाम दिया जो सब नामों में श्रेष्‍ठ है,
कि जो स्वर्ग में और पृथ्वी पर और पृथ्वी
   के नीचे हैं, वे सब यीशु के नाम पर घुटना टेकें;
और परमेश्‍वर पिता की महिमा के लिये
   हर एक जीभ अंगीकर कर ले कि यीशु मसीह ही प्रभु है।"

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एक व्यक्ति के रूप में यीशु कैसा था?
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