प्रश्न
क्या कलीसिया में स्त्रियों को चुप रहना चाहिए?
उत्तर
1 कुरिन्थियों 14:33–35 कहता है, "क्योंकि परमेश्वर गड़बड़ी का नहीं, परन्तु शान्ति का परमेश्वर है। जैसा पवित्र लोगों की सब कलीसियाओं में है। स्त्रियाँ कलीसिया की सभा में चुप रहें, क्योंकि उन्हें बातें करने की आज्ञा नहीं, परन्तु अधीन रहने की आज्ञा है, जैसा व्यवस्था में लिखा भी है। और यदि वे कुछ सीखना चाहें, तो घर में अपने अपने पति से पूछें, क्योंकि स्त्री का कलीसिया में बातें करना लज्जा की बात है" (बी एस आई हिन्दी बाइबल)। पहली दृष्टि में, ऐसा प्रतीत होता है कि यह एक स्पष्ट आदेश है कि स्त्रियों को कलीसिया में किसी भी समय नहीं बोलना चाहिए। तथापि, इसी पत्री (1 कुरिन्थियों 11:5) में कुछ समय पहले पौलुस ऐसी परिस्थितियों का उल्लेख करता है, जिसमें स्त्रियों को प्रार्थना करना और मण्डली की सभा में भविष्यद्वाणी करने की अनुमति प्रदान की गई है। इस कारण, 1 कुरिन्थियों 14:33–35 स्त्रियों के लिए सदैव सभी सभाओं में पूर्ण रूप से चुप रहने का आदेश नहीं हो सकता है। यह मनाही इसकी पृष्ठभूमि में पाई जाने वाली किसी बात को लेकर सीमित की गई होगी।
1 कुरिन्थियों अध्याय 14 की चिन्ता मण्डली की सुव्यवस्थित रूप से व्यवस्थित होने की है। कुरिन्थ की कलीसिया गड़बड़ी के लिए जानी जाती थी और वहाँ पर मण्डली में व्यवस्था की कमी पाई जाती थी (वचन 33)। कलीसिया की आराधना सभा में हर कोई जब कभी चाहे अपने मन के अनुसार अपनी अभिव्यक्ति के व्यक्त करने के साथ भागी हो रहा था, चाहे वह फिर अपनी इच्छानुसार ऊँची आवाज में ही बोलना क्यों न हो। अन्यभाषा का वरदान पाए हुए लोग एक साथ इकट्ठे बोल रहे थे, और किसी को भी जो कुछ कहा जा रहा था, उसकी व्याख्या की कोई चिन्ता नहीं थी। प्रकाशन का वरदान पाए हुए बेतरतीब तरीके से चिल्ला रहे थे, चाहे उसे किसी के द्वारा सुना जा रहा था या नहीं, और ऐसा आभासित होता है कि जो कुछ भविष्यद्वाणी में कहा था, उसकी कोई भी जाँच नहीं कर रहा था। आराधना सभा का चित्रण गड़बडी वाला था, और किसी की कोई उन्नति नहीं हो रही है, या कोई भी किसी तरह का कोई निर्देश नहीं प्राप्त कर रहा था (देखें वचन 5, 12, और 19)। इस समस्या के समाधान के लिए, पौलुस के लोगों के एक समूह/समूहों को निश्चित समयों में और निश्चित शर्तों के अधीन "चुप रहने" का निर्देश दिया:
• वचन 27–28अ, "यदि अन्य भाषा में बातें करनी हों तो दो या बहुत हो तो तीन जन बारी-बारी बोलें, और एक व्यक्ति अनुवाद करे। परन्तु यदि अनुवाद करनेवाला न हो, तो अन्यभाषा बोलनेवाला कलीसिया में शान्त रहे ।"
• वचन 29–31अ, "भविष्यद्वक्ताओं में से दो या तीन बोलें, और शेष लोग उनके वचन को परखें। परन्तु यदि दूसरे पर जो बैठा है, कुछ ईश्वरीय प्रकाश हो, तो पहला चुप हो जाए। क्योंकि तुम सब एक एक करके भविष्यद्वाणी कर सकते हो।"
• वचन 34–35, "स्त्रियाँ कलीसिया की सभा में चुप रहें, क्योंकि उन्हें बातें करने की आज्ञा नहीं, परन्तु अधीन रहने की आज्ञा है: जैसा व्यवस्था में लिखा भी है। और यदि वे कुछ सीखना चाहें, तो घर में अपने अपने पति से पूछें, क्योंकि स्त्री का कलीसिया में बातें करना लज्जा की बात है।"
जैसा कि हमने पहले ही ध्यान दे दिया है, स्त्रियों को कलीसिया में 1 कुरिन्थियों 11:5 में प्रार्थना और भविष्यद्वाणी करने की अनुमति प्रदान कर दी गई है, इसलिए 1 कुरिन्थियों 14:34–35 सभी समय सभी स्त्रियों को सभी तरह की बातें करने के लिए पूर्ण रूप से निषेध नहीं सकता है। जैसा कि अन्यभाषा-बोलनेवाले और भविष्यद्वक्ताओं को दिए गए आदेश से स्पष्ट है कि निश्चित रूप से अतिरिक्त लोगों को भी निश्चित समयों और निश्चित कारणों के लिए बोलने से मना किया गया था। यह सन्दर्भ हमें कुछ ऐसे सुराग देता है कि वहाँ पर क्या कुछ चल रहा था।
प्रथम, स्त्रियों को चुप रहने के लिए दिया हुआ आदेश दो महत्वपूर्ण विषयों: कलीसिया में उचित व्यवस्था या अधिकार की पहचान के प्रति सही प्रदर्शन का निपटारा करता है। ऐसा आभासित होता है कि कुछ स्त्रियाँ इतनी ऊँची आवाज में बोल रही थीं कि उन्होंने न तो अपने पतियों के और न ही कलीसियाई अगुवों के आत्मिक अधिकार की पहचान की थी। इस विषय को 1 कुरिन्थियों 11 में भी सम्बोधित किया गया है। स्त्रियों को प्रार्थना और भविष्यद्वाणी करने की तब तक अनुमति प्रदान की गई है, जब तक उनके सिर आत्मिक अधिकार के प्रति उचित सम्मान को दर्शाने के लिए ढके हुए हैं। (पहली सदी में, सिर को ढकना एक शुद्ध, सम्मानजनक महिला के होने का संकेत होता था, इसलिए कलीसिया में महिलाओं को इसे हटाने के लिए नहीं किया गया था; ऐसा करना उस समय की समकालीन संस्कृति का अपमान या उसके प्रति अनौचित्य को व्यक्त करना था। आज, सिर ढकना उसी सन्देश को सम्प्रेषित नहीं करता है, इसलिए, अधिकांश इवैन्जेलिकल अर्थात् सुसमाचारवादी मसीही विश्वासी इसकी व्याख्या इस रीति से करते हैं कि विशेष रूप से सिर ढकने से नहीं, अपितु सम्मानजनक व्यवहार का प्रदर्शन सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण चिन्हों के द्वारा प्रदर्शित करना अति महत्वपूर्ण है। हम यह कह सकते हैं कि पौलुस ऐसे कह रहा था कि, "यदि एक स्त्री कलीसिया में प्रार्थना या भविष्यद्वाणी करना चाहती है, तो वह ऐसा कलीसियाई अधिकार के प्रति उचित सम्मान दिखाते हुए कर सकती है; अन्यथा, उसे चुप रहना चाहिए।"
1 कुरिन्थियों 14:34 में वर्णित यूनानी शब्द गिनाएकेस का अर्थ इसके संदर्भ पर आधारित हो "स्त्री" या "पत्नी" हो सकता है। वचन 35 में उल्लेखित शब्द पति का संकेत "पत्नी" को इच्छित किया हुआ हो सकता है और यह कि केवल विवाहित स्त्रियों को ही कलीसिया में चुप रहना है। तथापि, पौलुस के आदेश को विवाहित स्त्रियों तक ही सीमित कर देना वास्तव में समस्या का समाधान नहीं कर देता है : प्राचीन संसार में विवाह को अक्सर जीवन में उच्च स्तर पर होने के रूप में देखा जाता था। यदि विवाहित स्त्रियाँ चुप रहना पसन्द करती थीं, तो अकेली स्त्रियों से चुप बैठने की कितनी अधिक अपेक्षा की जाती होगी?
1 कुरिन्थियों 14:34-35 की विभिन्न सम्भावित व्याख्याओं को यहाँ पर वर्णित करना सम्भव नहीं है। सबसे सर्वोत्तम व्याख्या 1 कुरिन्थियों 11 और 14 अध्याय के मध्य में व्याप्त तनाव को समाधान और उसके चारों ओर की पृष्ठभूमि को ध्यान में रख कर ही की जा सकती है। वहाँ पर दी हुई तात्कालिक पृष्ठभूमि के लेना देना भविष्यद्वाणी को करने और भविष्यद्वाणी की विवेचना के बारे में है। यदि कोई कलीसिया की सार्वजनिक सभा में एक भविष्यद्वाणी करता है, तो कलीसिया को उस के प्रति अपने निर्णय को देना था (1 कुरिन्थियों 14:29)। अर्थात्, कलीसिया को उसकी जाँच करनी और उसका मूल्यांकन यह देखने के लिए करना चाहिए था कि क्या यह वास्तव में परमेश्वर की ओर से है या नहीं, और यदि नहीं है, तो उसके विरूद्ध क्या कार्यवाही की जा सकती है। ऐसा प्रतीत होता है कि सबसे उत्तम सन्दर्भ आधारित समझ यह है कि स्त्रियों को वाद-विवाद वाले तर्कों की प्रक्रियाओं से बचने के लिए चुप रहना चाहिए, क्योंकि भविष्यद्वाणी का मूल्याँकन करना आत्मिक अधिकार क्षेत्र का विषय है। अतिरिक्त जटिलताएँ भी उत्पन्न हो सकती हैं: उस समय क्या करें यदि एक स्त्री उसके पति द्वारा की हुई भविष्यद्वाणी पर ही प्रश्न खड़ा कर दे या उसके पति के द्वारा की हुई भविष्यद्वाणी के मूल्याँकन से सहमत न हो? ऐसी घटना में, उसके लिए यह ठीक रहेगा कि वह मण्डली में शान्त रहे और उसके बारे में व्यक्तिगत् रूप से अपने घर में अपने पति से पूछताछ करे (वचन 35)। यह उसके पति के आत्मिक अधिकार के प्रति सम्मान को दिखाएगा और कलीसिया में अव्यवस्था फैलने की सम्भावना को कम कर देगा। (यद्यपि, इस प्रसंग में उल्लेखित नहीं किया गया है, यदि एक व्यक्ति की पत्नी के द्वारा की हुई भविष्यद्वाणी जाँच के अधीन आ गई हो, तो उस पति ने "स्वयं के बचाव" के लिए इस तरीके से बुद्धिमान पाया होगा!)
1 कुरिन्थियों 14:33–35 पौलुस की मूल इच्छा ऐसा प्रतीत होती है कि यह है कि स्त्रियाँ को भविष्यद्वाणी के मूल्याँकन में होने वाली चर्चा की प्रक्रियाओं में भाग नहीं लेना चाहिए। प्रश्न अभी भी वहीं पर है कि कैसे इस आज्ञा को आज के दिनों के ऊपर लागू किया जाए।
दोनों ही अध्यायों में अर्थात् 1 कुरिन्थियों 11 और 14 में, पौलुस सार्वभौमिक सिद्धान्त के रूप में घर और कलीसिया में पुरुष के आत्मिक नेतृत्व को बनाए रखने के लिए उत्सुक है (साथ ही देखें 1 तीमुथियुस 2:12)। पुरूष ही पास्टर और प्राचीन हैं, और शेष कलीसिया के साथ स्त्रियाँ उनके अधिकार के अधीन आती हैं। कैसे इस अधिकार के प्रति अधीनता की पहचान होती है और कैसे इसे लागू किया जाता है, यह एक दूसरी से भिन्न समकालीन सांस्कृतिक प्रथाओं के ऊपर आधारित है। यदि (जैसा कि अध्याय 11 में दिया है) सिर ढकना सांस्कृतिक रीति से स्त्री की शिष्ठता और अधीनता के लिए सही चिन्ह है, तब तो स्त्रियों को सिर ढक लेना चाहिए। यदि यह प्रतीक प्रचलन से बाहर हो गया है, तब तो इसे अन्य सांस्कृतिक प्रासंगिक प्रतीकों के पक्ष में छोड़ दिया जा सकता है। आधुनिक पश्चिमी संस्कृति में, शिष्टता से भरे हुए कपड़े वास्तव में एक प्रासंगिक प्रतीक होंगे। अन्य प्रतीक, जैसे कि पत्नी अपने पति के अन्तिम नाम को अपना लेती है, भारतीय संस्कृति में किसी समय कम महत्वपूर्ण माना जाता होगा, परन्तु अब इसे अत्यधिक महत्व दिया जाता है।
स्त्रियों को कलीसिया में चुप रहने की आज्ञा के सम्बन्ध में अन्य बहुत से और कारण संस्कृति में निहित होंगे। क्योंकि पहली-सदी की स्त्रियाँ किसी भी सभा में वाद-विवाद वाले तर्कों वाली बातों के कार्यों में भाग लेती थीं, इसलिए इसे अधिकार के विरूद्ध विद्रोह माना जाता था। कदाचित् आज की संस्कृति में, जहाँ स्त्रियों को भाग लेने के लिए निमन्त्रण दिया जाता है, उनकी चुप्पी कलीसिया में कलीसिया के नेतृत्व या उनके पतियों के प्रति उचित सम्मान दिखाने के लिए आवश्यक शर्त नहीं है। यहाँ पर प्रस्तुत व्याख्या यह मानती है कि जब तक कलीसिया या घर में पुरूष के नेतृत्वों के प्रति सम्मान दिया जाता है और इसके लिए स्त्रियों की स्वीकृति सांस्कृतिक रूप से प्रासंगिक है, तब तक इस प्रसंग के भाव पूरा हो रहे हैं।
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