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फिलिप्पियों की पुस्तक

लेखक : फिलिप्पियों 1:1 फिलिप्पियों की पुस्तक के लेखक को प्रेरित पौलुस के द्वारा, तीमुथियुस की सहायता से लिखे जाने की सम्भावना के रूप में परिचित कराती है।

लेखन तिथि : फिलिप्पियों की पुस्तक लगभग 61 ईस्वी सन् में लिखी गई थी।

लेखन का उद्देश्य : फिलिप्पियों के विश्‍वासियों को लिखा गया पत्र, पौलुस के द्वारा रोम में बन्दीगृह से लिखे हुए पत्रों में से एक है। यह फिलिप्पी शहर ही था, जहाँ पर प्रेरित अपनी दूसरी मिशनरी अर्थात् प्रचार यात्रा में गया था (प्रेरितों के काम 16:12), जिसमें लुदिया और फिलिप्पियों के बन्दीगृह का दरोगा और उसके परिवार ने मसीह पर विश्‍वास किया था। अब, कुछ वर्षों के पश्चात्, कलीसिया अच्छी तरह से स्थापित हो चुकी थी, जिसकी सूचना हमें इसके आरम्भिक सम्बोधन से प्राप्त होता है, जिसमें "अध्यक्षों (प्राचीन) और सेवकों" के वाक्यांश को सम्मिलित किया गया है (फिलिप्पियों 1:1)।

इस पत्र के लिखे जाने की पृष्ठभूमि फिलिप्पियों की कलीसिया से आए हुए धन की भेंट के प्रति धन्यवाद देना था, जिसे प्रेरित के पास वहाँ की कलीसिया के एक सदस्य इपफ्रुदीतुस के द्वारा लाया गया था (फिलिप्पियों 4:10-18)। यह मसीही विश्‍वासियों के एक समूह को जिनका विशेषरूप से पौलुस के साथ गहरा सम्बन्ध था (2 कुरिन्थियों 8:1-6), और अपेक्षाकृत थोड़ी सा धर्मसिद्धान्तिक त्रुटियों के बारे लिखा हुआ संवेदनशील पत्र है ।

कुँजी वचन : फिलिप्पियों 1:21: "क्योंकि मेरे लिये जीवित रहना मसीह है, और मर जाना लाभ है।"

फिलिप्पियों 3:7: "परन्तु जो जो बातें मेरे लाभ की थीं, उन्हीं को मैं ने मसीह के कारण हानि समझ लिया है।"

फिलिप्पियों 4:4: "प्रभु में सदा आनन्दित रहो; मैं फिर कहता हूँ, आनन्दित रहो!"

फिलिप्पियों 4:6-7: "किसी भी बात की चिन्ता मत करो: परन्तु हर एक बात में तुम्हारे निवेदन, प्रार्थना और विनती के द्वारा धन्यवाद के साथ परमेश्‍वर के सम्मुख उपस्थित किए जाएँ। तब परमेश्‍वर की शान्ति, जो समझ से बिलकुल परे है, तुम्हारे हृदय और तुम्हारे विचारों को मसीह यीशु में सुरक्षित रखेगी।"

फिलिप्पियों 4:13: "जो मुझे सामर्थ्य देता है उसमें मैं सब कुछ कर सकता हूँ।"

संक्षिप्त सार : फिलिप्पियों के पत्र को "दु:खों में खड़े रहने के लिए संसाधन" कहा जा सकता है। पुस्तक हमारे जीवन में मसीह, हमारे मन में मसीह, हमारे लक्ष्य के रूप में मसीह, हमारी सामर्थ्य के रूप में मसीह, और दु:खों के द्वारा आनन्द के बारे में है। यह रोम में मसीह के स्वर्गारोहण के तीस वर्षों और पौलुस के द्वारा फिलिप्पियों में प्रथम बार किए हुए प्रचार के दस वर्षों के पश्चात् पौलुस के बन्दीगृह में रहने के समय लिखी गई थी।

पौलुस सम्राट नीरो का कैदी था, तथापि पत्र स्पष्टता के साथ विजय की पुकार "आनन्द" और "हर्ष" के शब्दों को निरन्तर प्रगट होने के द्वारा देती है (फिलिप्पयों 1:4, 18, 25, 26; 2:2, 28; फिलिप्पियों 3:1, 4:1, 4, 10)। सही मसीही अनुभव हम में वास करते हुए मसीह के जीवन, स्वभाव और मन का चाहे कोई भी परिस्थिति क्यों न हो कार्य करते रहना है (फिलिप्पियों 1:6, 11; 2:5, 13)। फिलिप्पियों का पत्र 2:5-11 में अपनी हमारे प्रभु यीशु मसीह की महानता और नम्रता के सम्बन्ध में दी हुई उल्लेखनीय और महिमामयी घोषणा के साथ पराकाष्ठा में पहुँच जाता है।

फिलिप्पियों को निम्न खण्डों में विभाजित किया जा सकता है :
परिचय, 1:1-7
1. एक मसीही का जीवन मसीह है : दु:खों के होने के पश्चात् भी आनन्दित रहना, 1:8-30
2. एक मसीही जीवन की पद्धति मसीह है: निम्न स्तर की सेवा में आनन्दित होना, 2:1-30
3. एक मसीही के विश्‍वास, इच्छा और अपेक्षा का विषय मसीह है, 3:1-21
4. एक मसीही की सामर्थ्य मसीह है : चिन्ताओं में आनन्दित रहना, 4:1-9
निष्कर्ष, 4:10-23

सम्पर्क : जैसा कि उसके अन्य कई पत्रों के साथ है, पौलुस फिलिप्पियों की कलीसिया के नए विश्‍वासियों को कर्मकाण्डवादी प्रवृत्ति से सावधान रहने की चेतावनी देता है, जो आरम्भिक कलीसियाओं में निरन्तर बढ़ते चले जा रहे थे। यहूदी पुराने नियम की व्यवस्था से इतने अधिक बँधे हुए थे कि यहूदी धर्म में से आए हुए विश्‍वासियों को निरन्तर कर्मों से उद्धार की शिक्षा से लौटने के लिए निरन्तर प्रयास करना पड़ रहा था। परन्तु पौलुस ने मसीह में विश्‍वास के द्वारा ही उद्धार को दुहराया और यहूदी मत में से निकल कर आए हुए विश्‍वासियों को "कुत्ते" और ऐसे "मनुष्य जो बुराई करते हैं" के ब्राण्ड रूप में चिन्हित किया। विशेष रूप से, कर्मकण्डवादियों ने यह जोर दिया कि मसीह में आए इन नए विश्‍वासियों को पुराने नियम की व्यवस्था के अनुसार निरन्तर खतना करना चाहिए (उत्पत्ति 17:10-12; लैव्यव्यस्था 12:3)। इस तरह से, उन्होंने परमेश्‍वर को स्वयं के अपने प्रयासों के द्वारा प्रसन्न करने के प्रयास किए और अन्यजातियों में से आए हुए मसीही विश्‍वासियों से ऊँचा कर लिया जिन्होंने उनके अनुष्ठानों में भाग नहीं लिया था। पौलुस ने वर्णन दिया कि वे जो मेम्ने के लहू से धो लिए गए हैं, उन्हें अब और अधिक अनुष्ठानों का पालन करने की आवश्यकता नहीं है, जो शुद्ध मन के होने की आवश्यकता का प्रतीक था।

व्यवहारिक शिक्षा : फिलिप्पियों का पत्र पौलुस के कई व्यक्तिगत् पत्रों में से सबसे अधिक व्यक्तिगत् है, और इस कारण विश्‍वासियों के लिए इसके कई व्यक्तिगत् निहितार्थ पाए जाते हैं। रोम में उसकी कारावास के समय लिखते हुए, पौलुस फिलिप्पियों के विश्‍वासियों को उसके नमूने को पालन करने और "हियाव बाँध कर परमेश्‍वर का वचन निधड़क सुनाने का और भी साहस" सताव के समयों में करने के लिए उपदेश देता है (फिलिप्पियों 1:14)। सभी मसीही विश्‍वासियों ने किसी एक समय या किसी दूसरे समय मसीह के सुसमाचार के विरूद्ध अविश्‍वासियों की शत्रुता का अनुभव किया है। इसकी अपेक्षा की जानी चाहिए। यीशु ने कहा था कि संसार ने मुझ से घृणा की है और वह उसके अनुयायियों से भी करेगा (यूहन्ना 5:18)। पौलुस हमें सताव के समय धैर्य रखने, "एक ही आत्मा में स्थिर होने और एक चित्त होकर सुसमाचार के विश्‍वास के लिये परिश्रम करने के लिए उपदेश देता है (फिलिप्पियों 1:27)।

फिलिप्पियों में अन्य निहित् शिक्षाओं में मसीही विश्‍वासियों को नम्रता के साथ एकता में आने की आवश्यकता की है। हम मसीह के साथ एक हो गए हैं और हमें इसी तरह से हमें एक दूसरे के साथ एक होने के लिए प्रयासरत् रहने की आवश्यकता है। पौलुस हमें "एक मन रहने, और एक ही प्रेम, एक ही चित्त और एक ही मनसा रखने" और धोखा और स्वार्थ एक ओर रखते हुए, "दीनता से एक दूसरे को अपने से अच्छा समझते हुए" अपनी ही नहीं वरन् दूसरों के हित की चिन्ता और देखभाल करने के लिए स्मरण दिलाता है (फिलिप्पियों 2:2-4)। यदि हम पौलुस के दिए हुए परामर्श को अपने मन से मान लें तो आज कलीसियाओं में बहुत ही कम संघर्ष होंगे।

फिलिप्पियों के पत्र में निहित अन्य शिक्षा आनन्द और हर्ष की है जो इस पूरे पत्र में देखने को मिलता है। वह इसलिये आनन्दित होता है क्योंकि मसीह के सुसमाचार की घोषणा की जा रही है (फिलिप्पियों 1:8); वह अपने सताव के ऊपर आनन्दित होता है (2:18); वह प्रभु में अन्यों को आनन्दित रहने के लिए उपदेश देता है (3:1); और वह फिलिप्पियों के भाइयों को अपना "आनन्द और मुकुट" कहता है (4:1)। वह विश्‍वासियों को अपने उपदेश का सार ऐसे देता है : "प्रभु में सदा आनन्दित रहो; मैं फिर कहता हूँ, आनन्दित रहो" (4:4-7)। विश्‍वासी होने के नाते, हम अपनी सारी चिन्ताओं को उसके ऊपर डालते हुए परमेश्‍वर की शान्ति का आनन्द और अनुभव तब ले सकते हैं, जब हम "किसी भी बात की चिन्ता मत करो; परन्तु हर एक बात में तुम्हारे [हमारे] निवेदन, प्रार्थना और विनती के द्वारा धन्यवाद के साथ परमेश्‍वर के सम्मुख उपस्थित किए जाएँ" (4:6)। सताव और बन्दीगृह में रहने के पश्चात् भी, पौलुस का आनन्द, उसके इस पूरे पत्र में निखरते हुए सामने आता है, और हमें भी इसी आनन्द को जब हम हमारे विचारों को प्रभु के ऊपर केन्द्रित करते हैं तब दिए जाने की प्रतिज्ञा दी गई है, जिसका अनुभव उसने किया था (फिलिप्पियों 4:8)।



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